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पुरोवाक्
भारतीय वाङ्मय में वेद, वेदाङ्ग, उपनिषद् एवं पुराण साहित्य आता है। इसके अतिरिक्त षङ्दर्शन, जैन साहित्य, बौद्ध साहित्य आदि साहित्य को भारतीय वाङमय से पहचाना जाता है। जैन धर्म, दर्शन, साहित्य और संस्कृति का मूलाधार आगम साहित्य है। जैनागम साहित्य भारतीय ज्ञान-विज्ञान का अक्ष्य कोश है। आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत, पुनर्जन्म, कर्म प्रवृत्ति आदि विषयों पर जितना विशद् रूप से जैनागमों का विश्लेषण हुआ है उतना विश्व के अन्य साहित्य में कहीं नहीं हुआ।
जैनागमों में श्रुत ज्ञान का विशेष महत्व है। श्रुतज्ञान के बिना आत्मा जागृत नहीं हो सकती। आत्मा के विकास के लिये श्रुतज्ञान अत्यन्त उपयोगी है। श्रुतज्ञान के द्वारा ही आत्मा स्वकल्याण करने में समर्थ हो सकता है, यदि श्रुतज्ञान का अभाव हो तो आत्मा अपने कर्त्तव्य से पतित हो जाता है। श्रुतज्ञान के दो रूप है-द्रव्यश्रुत और भाव श्रुत। आज दोनों ही श्रुत विद्यमान हैं। अनुयोग द्वार सूत्र में पत्र और पुस्तकों के अक्षर विन्यास को द्रव्य श्रुत कहा गया है और आत्मज्ञान के रूप में श्रुत को भाव श्रुत कहा जाता है ये दोनों श्रुत लौकिक और लोकोत्तर धर्म मार्ग के साधन है।
जैनधर्म का साहित्य बहुत विशाल है। वह प्रत्येक विषय के ग्रन्थों से समृद्ध है। जैनों के संस्कृत-साहित्य की महता बतलाते हुए जर्मन विद्वान डॉ. हर्टल ने लिखा है कि
'Now what would Sanskrita poetry be without the large Sanskrit literature of the Jains! The more I learn to know it, the more my admiration rises',
[Jainashasana Vol. I, N. 21] अर्थात् जैनों के महान् संस्कृत साहित्य को यदि अलग कर दिया जाये तो संस्कृत कविता की क्या दशा होगी? इस विषय में मुझे जैसे-जैसे अधिक जानकारी मिलती जाती है। वैसे-वैसे मेरे आनन्द युक्त आश्चर्य में अभिवृद्धि होती जाती है।