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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
जिस प्रकार मछली को तैरने में पानी सहायक होता है उसी प्रकार जड़ पदार्थों की तथा जीवों की गति में सहायक धर्म द्रव्य को माना जाता है।
धर्मास्तिकाय क्रियारहित है अर्थात् इसमें न तो क्रियाशीलता है और न यह किसी दूसरे पदार्थ से ही क्रिया उत्पन्न करता है किन्तु क्रियाशील जीव तथा पुद्गलों की क्रिया में सहायता प्रदान करता है। यह द्रव्य उसी प्रकार क्रिया में सहायक होता है जिस प्रकार मछलियों को चलने के लिए जल।
2. अधर्म : अधर्म के लक्षण - जीव और पुद्गल के स्थित होने में जो सहकारी कारण हो उसे अधर्म कहते हैं। धर्म और अधर्म ये दोनों ही पदार्थ अपनी इच्छा से गमन करते और ठहरते हुए जीव तथा पुद्गल के गमन करने और ठहरने में सहायक होकर प्रवृत्त होते है स्वयं किसी को प्रेरित नहीं करते हैं।'
अधर्मास्तिकाय का कार्य धर्मास्तिकाय से विपरीत है। यह जीव पुद्गल को ठहरने में सहायता देता है इसे Fulcoum of rest कहा जाता है।
यदि अधर्मास्तिकाय न हो तो एक बार गति में आई वस्तु कभी रुकेगी नहीं। सदा चलती रहेगी।
धर्मास्तिकाय भी ठहरने का उदासीन हेतु है, ठीक वृक्ष की छाया की तरह। वृक्ष पथिक को ठहरने के लिए प्रेरित नहीं करता किन्तु यदि पथिक विश्रान्ति लेना चाहे तो छाया उसकी सहायक होती है।
3. आकाश : आकाश का लक्षण - जीवादि पदार्थों को ठहरने के लिए जो स्थान देता है उसे आकाश कहते हैं। वह आकाश स्पर्श रहित है, अमूर्तिक है, सब जगह व्याप्त होने से सर्वव्यापी है और क्रियारहित है।'
___ जो द्रव्य जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल को स्थान देता है अर्थात् अवगाह देता है वह आकाश है।10 आकाश द्रव्य अन्य सब द्रव्यों में बड़ा स्कन्ध है क्योंकि यह अनन्त प्रदेश परिमाण वाला है।
आकाश को लोकाकाश और अलोकाकाश दो भागों में विभक्त किया गया है। जहाँ धर्म और अधर्म पदार्थ स्थित है अर्थात् जहाँ पाप और पुण्य का फल देखा जाता है वहाँ तक के प्रदेश को लोक कहते है। 2 इन दो पदार्थों के सहयोग से ही लोक के जीव एवं पुद्गल पदार्थों की क्रिया हो रही है उसे लोकाकाश कहते हैं। लोक के बाहर का प्रदेश अलोक कहलाता है। अलोक में दो पदार्थ धर्म, अधर्म के न होने के कारण वहाँ एक भी अणु अथवा एक भी जीव नहीं है और लोक में से कोई भी अणु अथवा जीव अलोक में नहीं जा सकते, क्योंकि अलोक में धर्म और अधर्म पदार्थ नहीं है। अब प्रश्न उठता है