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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
के फलों का भोग एक साथ एक समय में नहीं भोग सकता अतः जीव स्वर्ग एवं नरक में जाकर भिन्न-भिन्न जन्म ग्रहण करते हुए उपभोग करता है। कर्म लिप्त आत्मा का जन्म के पश्चात् मृत्यु, मृत्यु के पश्चात् जन्म लेना यही भारतीय दर्शन की निश्चित मान्यता है। इसी के फलस्वरूप स्वर्ग एवं नरक सिद्धान्त की पुष्टि हो जाती है। यह अलग बात है कि भारतीय परम्परा में स्वर्ग अथवा नरक की परिकल्पनाएँ भिन्न-भिन्न रूप में स्वीकृत है। जैन दर्शन में छब्बीस स्वर्गों की परिकल्पना अपने में एक अनूठा उदाहरण है क्योंकि भारतीय इतर मान्यताओं में नरक और स्वर्गों के बारे में इतनी स्टीक विवेचना नहीं मिलती। न ही इतना सूक्ष्म गहन और विस्तार पूर्वक वर्णन मिलता है।
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संदर्भ
1. वैत्रविष्टर झल्लयों मृदङ्गश्च यथाविद्या: । संस्थानैस्तादृशान् प्राहुस्त्रींल्लोकाननुपूर्वशः ।।
2. जै. सि. को., ( भा. 3) पृ. 569
3. विपाक क्षेत्रमाम्नातं तद्धि दुष्कृतकर्मणाम्।
आ. पु. 10.8
4. शीतोष्णासद्धेद्योदयापादित वेदनया नरात् कायन्तीति शब्दायन्त इति नारकाः । अथवा पापकृतः प्राणिन आत्यन्तिक दुःखं नृणन्ति न्यन्तीति नारकाणि औणादिकः कर्तर्यकः ।
रा. वा. 2.50.2-3, 156.23
5. रत्नशर्कर वालुक्यः पङ्कधूमतमः प्रभाः । तमस्तमः प्रभाचेति सप्तार्थः श्वभ्रभूमयः । 6. तांसा पर्यायनामानि धर्मा वंशा शिलाञ्जना । अरिष्टा मघवी चैव माघवी चैत्यनुक्रमात्।। 7. त.सू. (के. मु.) 3.1 (टीका)
8. चित्रादि रत्न प्रभा सहचरिता भूमिः रत्नप्रभा ।
9. त.सू. ( के. मु.) 3.1 -2 (वि.)
10. त.सू. ( के. मु.) 3.1-2 (वि.) 11. वही ।
12. त.सू. ( के. मु.) 3.1 -2 (वि.) 13. वही ।
14. वही।
15. त.सू. (के.मु.) 3.1-2 (वि.)
16. हिंसायां निरता ये स्युर्ये मृषावादतत्पराः । चुराशीला : परस्त्रीषु ये रता मद्यपाश्च ये ।।
आ. पु. 4.41
आ. पु. 10.31; त. सू. 3.1
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आ. पु. 10.32
स.सि. 3.1.203.7