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आदिपुराण में नरक-स्वर्ग विमर्श
139 बावड़ियाँ रत्नमय निर्मल जल और कमलों से मनोहर प्रतीत होती है। रत्नों के सुन्दर वृक्ष, बेलें, गुच्छे, गुल्म और तृण वायु से हिलते हैं। जब वे आपस में टकराते हैं तो उनमें से छह राग छत्तीस रागनियाँ निकलती हैं। वहाँ सोने-चांदी की रेत बिछी है और तरह तरह के आसन पड़े हैं। अति सुन्दर, सदैव नवयौवन से ललित, दिव्य तेज वाले, समचतुरस्त्र संस्थान के धारक, अति उत्तम मणि रत्नों के वस्त्रों के धारक, दिव्य अलंकृत देव और देवियाँ इच्छित क्रीड़ा करते हुए इच्छित भोग भोगते हुए पूर्वोपार्जित पुण्य के फल को भोगते हैं।। 70
जिस देव की जितने सागरोपम की आयु है वे उतने ही पक्ष में श्वासोच्छ्वास लेते हैं और उन्हें उतने ही हजार वर्षों में आहार ग्रहण करने की इच्छा होती है। जैसे सर्वार्थसिद्ध विमान के देवों की आयु 33 सागरोपम की है। 71 तो वे तैंतीस पक्ष में अर्थात् 16 महीनों में एक बार श्वासोच्छ्वास लेते हैं और 33 हजार वर्षों के बाद आहार ग्रहण किया करते हैं। देव कवलाहार नहीं करते, किन्तु रोमाहार करते हैं। अर्थात् जब उन्हें आहार की इच्छा होती है, तब रत्नों के शुभ पुद्गलों को रोमों द्वारा खींच कर तृप्त हो जाते हैं अर्थात् मानसिक दिव्य आहार ग्रहण करते हैं।।72
समीक्षा
उपर्युक्त स्वर्ग और नरक की अवधारणा न केवल जैन धर्म में स्वीकार्य है अपितु हिन्दू धर्म में भी इसी प्रकार स्वीकार्य है। कर्म एवं पुनर्जन्म के कारण ही कर्म फल भोगने के लिए जीव को ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक में जाना ही पड़ता है। इस प्रकार कर्म फल को इंगित करता है और कर्म करने के बाद फल के रूप में प्राप्त होने वाले जन्म को यदि मनुष्य अपने कृत कर्मों के फल का भोग वर्तमान जीवन में नहीं कर पाता, तो शेष कर्मों के फलों को भोगने के लिए नरक, तिर्यक् अथवा स्वर्गलोक में जन्म लेना ही पड़ता है। इसलिए जाने अनजाने में शुभ और अशुभ कर्मों के फल भोगने के लिए इन तीनों लोकों का चक्र बार-बार काटना पड़ता है। विभिन्न योनियों में जन्म लेने के लिए जीव को इन तीनों लोकों में जाना अनिवार्य हो जाता है। वहाँ जाना इसलिए अनिवार्य है क्योंकि उसने अपने पूर्व कर्म का उपभोग नहीं किया है। इसलिए न केवल पुण्यकर्मों के फल भोग के लिए अपितु पापकर्मों के फल भोग के लिए भी पुनर्जन्म ग्रहण करना पड़ता है। इस पुनर्जन्म की चरितार्थता स्वर्ग नरक और तिर्यक लोक में ही हो सकती है। गीता (9.21) में तो स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्य को अपने कर्मों के अनुसार स्वर्गलोक अथवा मृत्युलोक में आना-जाना ही पड़ता है। पुण्य एवं पाप दो परस्पर विरोधी कर्मों