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आदिपुराण में नरक-स्वर्ग विमर्श
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ग्यारहवें देवलोक के देवों के लिए पहले सौधर्म देवलोक की अपरिगृहीता देवियाँ आती हैं, जिनकी आयु 40 पल्योपम से एक समय अधिक से 50 पल्योपम तक होती है वे भोग में आती है। बारहवें देवलोक के देवों के लिए दूसरे देवलोक की अपरिगृहीता देवियाँ वहाँ आती हैं जिनकी आयु 45 पल्योपम से समयाधिक तथा 55 पल्येपम तक होती है। वे ही बारहवें देवलोक के देवों के भोग में आती हैं।150
स्थानाङ्ग सूत्र में देवलोकों में जाने के चार कारण कहे गये हैं - 1. सराग संयम, 2. संयमासंयम, 3. बाल तप कर्म, 4. अकाम निर्जरा।
1. सराग संयम - कषाय सहित चारित्र का पालन करने से अर्थात् संयम पालन करने से देवलोक की प्राप्ति होती है।
2. संयमासंयम - श्रावक वृत्ति एवं गृहस्थ धर्म का पालन करने से देवलोक की प्राप्ति होती है।
___3. बालतप कर्म - अज्ञानतापूर्वक तप करने से जीव देवायु का बन्ध करता है।
4. अकाम निर्जरा - अनिच्छा से ब्रह्मचर्य, तप एवं सहनशीलता का होना, बिना इच्छा से भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी कष्ट आदि का सहन करना अकाम निर्जरा है। ये चार कारण देवायु बन्ध के कहे गये हैं। बाल तपकर्म और अकाम निर्जरा से जो देवायु का बन्ध करते हैं वे आराधक देव नहीं क्योंकि आराधक भाव तो सम्यग्दर्शन पर ही निर्भर है। उसके बिना ज्ञान नहीं, ज्ञान के बिना सम्यक् चारित्र नहीं, उसके बिना आराधक होना असम्भव है। आराधक अवस्था में बन्धी हुई आयु ही महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।।51
अच्युत स्वर्ग में जाने के हेतु
जीव द्वारा किये अशुभ कर्मों की जब निर्जरा होती है, उस निर्जरा का महत्त्वपूर्ण कारण तप को ही बताया गया है। संयमवृत्ति (पाँच महाव्रतों) को धारण करके और उत्कृष्ट रत्नावली तप सर्वतोभद्र नामक तप और सिंह निष्क्रीडित नामक तप विधिपूर्वक करके तथा तीन ज्ञानों को धारण करके - मति, श्रुत, अवधि ज्ञान को पाकर जीव अच्युत नामक बारहवें स्वर्ग को प्राप्त करता है।152