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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण देवों में भोग प्रवृत्ति
नौवें देवलोक के देव प्रथम देवलोक की अपरिगृहीता देवियाँ जिनकी आयु 30 पल्योपम से एक समय अधिक से 40 पल्योपम तक की होती है, उनका भोग करते हैं। नौवें देवलोक के देव जब अपने स्थान पर भोग की इच्छा करते हैं तो ऊपर कही हुई अपरिगृहीता देवियों का मन देवों की ओर आकर्षित हो जाता है। वे देव उनके विकारयुक्त मन का अवधिज्ञान से अवलोकन करने मात्र से तृत्प हो जाते हैं और प्राणत देवलोक में दूसरे देवलोक की अपरिगृहीता देवियाँ, जिनकी आयु 35 पल्योपम से समयाधिक और 45 पल्योपम तक है, उनका ऊपर कहे अनुसार ही भोग करते हैं।।46 11-12 आरण और अप्युत देवलोक
नौवें और दसवें देवलोक की सीमा से आधा रज्जु ऊपर 10 रज्जु घनाकार विस्तार में, मेरु से दक्षिण दिशा में ग्यारहवाँ "आरण" देवलोक है
और उत्तर दिशा में बारहवाँ "अच्युत" देवलोक है। इनका आकार अर्धचन्द्र के समान है। 47
अच्युत स्वर्ग में जाने के हेतु
जो गृहस्थ धर्म के बारह व्रतों (पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षा व्रत) का पालन करते हैं अर्थात् सम्यग्दर्शन से पवित्र व्रतों को शुद्धता से पालन करते हैं। जीवन के अन्तिम समय में, परिग्रह से रहित होकर संन्यासवृत्ति का पालन करते हैं और समाधिपूर्वक देह का त्याग करने वाले अच्युत देवलोक को प्राप्त होते हैं और अनेक ऋद्धियों को प्राप्त करते हैं।
बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर निर्ग्रन्थ (दिगम्बर) दीक्षा धारण करने वाले जीव अच्युत स्वर्ग से प्रतीन्द्र पद को प्राप्त होते हैं।।48 अथवा जो व्यक्ति रत्नत्रय की उपासना करता है वह समृद्धि वाले अच्युत स्वर्ग को प्राप्त होता है। 49
आरण और अच्युत स्वर्गों के भोग प्रवृत्ति में भिन्नता
ग्यारहवें-बारहवें देवलोक के देवों की जब भोग-विलास करने की इच्छा होती है, तब दोनों देवलोकों के देव अपने स्थान पर ही प्रथम और दूसरे देवलोक की अपरिगृहीता देवियों के मन को अपनी और आकर्षित कर लेते हैं। उनके अंगोपांग को देखने मात्र से ही देवों की भोग से तृप्ति हो जाती है।