SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 130 लौकान्तिक देवों के प्रकार जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण लौकान्तिक देव आठ प्रकार के होते हैं - (क) सारस्वत (ङ) गर्दतोय (ख) आदित्य (च) तुषित (ग) वह्नि (छ) अव्याबाध (घ) अरुण (ज) अरिष्ट । 135 6. लान्तक देवलोक पाँचवें देवलोक 1 36 की सीमा से आधा रज्जू 137 18 रज्जू घनाकार विस्तार में, मेरु पर्वत के बराबर मध्य में घनवात और घनोदधि के आधार पर छठा लान्तक देवलोक स्थित है। देवों में भोग की प्रवृत्ति छठे देवलोक के देवों में जब भोग की इच्छा होती है तब वे दूसरे देवलोक की अपरिगृहीता देवियों के विषय-जनक शब्द सुनने मात्र से ही तृप्त हो जाते हैं। वे अपरिगृहीता देवियों की आयु 15 पल्योपम से एक समय अधिक से पच्चीस पल्योपम तक होती है। ये देवियाँ ही ब्रह्मदेवलोक के देवों के भोग में आती हैं। 1 38 7. महाशुक्र देवलोक छठे देवलोक की सीमा पर पाव रज्जु ऊपर और रज्जु घनाकार विस्तार में मेरुपर्वत के बराबर मध्य में घनवात और घनोदधि के आधार पर सातवाँ महाशुक्र देवलोक अवस्थित है। इस लोक का आकार पूर्णचन्द्र के समान है। 139 महाशुक्र देवलोक में जाने के हेतु महान् और उत्कृष्ट तपों को धारण करने वाला जीव ही महाशुक्र सातवें स्वर्ग में जाते है। महान तपों में सुदर्शन और आचाम्लवर्द्धन तपों के उपवास करने वाले आते हैं। महाशुक्र स्वर्ग में सोलह सागर प्रमाण की आयु की भोग करता हुआ जीव सुखमय जीवन व्यतीत करता है। आदिपुराण में वर्णित प्रहसित और विकसित दोनों ने सुदर्शन और आचाम्लवर्द्धन व्रतों को धारण किया । विकसित ने नारायण पद प्राप्त करने के लिए निदान ( मरने से पहले मन में संकल्प करना कि मेरी करणी का फल या मेरे तप का फल यह हो, मैं मर कर नारायण या चक्रवर्ती बनूँ) भी किया था। दोनों मर कर महाशुक्र स्वर्ग में इन्द्र और प्रतीन्द्र पद को प्राप्त हुए। 140
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy