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आदिपुराण में नरक-स्वर्ग विमर्श 5. ब्रह्म देवलोक
सनत्कुमार और महेन्द्र देव लोक की सीमा से आधा रज्जू ऊपर 18 रज्जू घनाकार विस्तार में जम्बू द्वीप के मेरु पर्वत पर बराबर मध्य में घनवात के आधार पर पाँचवाँ ब्रह्म नामक देवलोक स्थित है। 31 ब्रह्म देवलोक का आकार पूर्ण चन्द्र के समान है। ब्रह्म देवलोक की प्राप्ति में हेतु
आदिपुराण के दशम पर्व में शतबुद्धि का जीव जो मिथ्यात्व के कारण नरक में जाता है। वहाँ उसे श्रीधर नामक के देव बोध देने के लिए आते हैं। उसे जिनेन्द्र वाणी सुनाकर मिथ्यात्व रूपी मैल को दूर हटाकर सम्यग्दर्शन धारण करवाया। वही जीव सम्यक्त्व के कारण विदेह क्षेत्र में महीधर चक्रवर्ती के घर उत्पन्न हुआ। जिसका नाम जयसेन रखा। जिस समय उसका विवाह हो रहा था। उस समय श्रीधर देव जाकर उसे समझाते हैं। पिछली नरकों की घोर वेदनाओं को याद करवाते हैं। उसे सुनकर विरक्ति आ जाती है। संयमवृत्ति अंगीकार कर लेता है। अपने जीवन को तपश्चर्या में लगाकर जीवन के अन्तिम समय समाधि पूर्वक प्राण त्यागर ब्रह्मस्वर्ग में इन्द्र पद को प्राप्त किया। कर्मो की गति बड़ी विचित्र है।।32
देवता में भोग की प्रवृत्ति
ब्रह्म देवलोक के देवता में जब भोग की इच्छा उत्पन्न होती है तो वे सौधर्म देवलोक की अपरिगृहीता देवियों (जिनकी आयु दस पल्योपम से एक समय अधिक से बीस पल्योपम तक है) के विषय-जनक शब्द सुनने मात्र से उनकी भोगों से सन्तुष्टि हो जाती है। 33 6. लौकान्तिक देवों का स्वरूप
संसारी समुद्ररूपी जो लोक हैं, उसके अन्त में स्थित होने के कारण इन देवों का नाम लौकान्तिक पड़ा। अर्थात् ये देव ब्रह्मलोक (पाँचवें स्वर्ग) में रहते हैं। ब्रह्मलोक के अन्त में निवास करने के कारण ये लौकान्तिक देवों के नाम से जाने जाते हैं। ये सभी देवों में उत्तम होते हैं। ये देव पूर्व भव में सम्पूर्ण श्रुतज्ञान का अभ्यास करते हैं। इन देवों की भावनाएँ और लेश्याएँ शुभ होती हैं। ये देव बड़ी-बड़ी ऋद्धियों के धारक होते हैं।134 तीर्थंकर को दीक्षा का बोध देने के लिए भी लौकान्तिक देव ही आते हैं।