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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण स्वर्ग छोड़ने से पूर्व देवता की स्थिति
देवता देवलोक में अपना आयुष्यकर्म पूर्ण करने से छः मास पूर्व यह विचार करने लगते है कि मैं इस स्थान को छोड़कर मृत्यु आदि लोकों में जाऊँगा, स्वर्ग छोड़ने से पहले देवता के विमान और आभरणों की कान्ति कम हो जाती है, कल्पवृक्ष कुम्हला जाता है, अपनी शरीर की दीप्ति क्षीण होने लगती है, गले में डाली माला कुम्हला जाती है, यह सभी कारणों को देखकर देवता बहुत दु:खी होता है कि अब मेरा मृत्यु समय निकट आ गया है। देवलोक की दिव्य समृद्धि, दिव्य देवधुति और देवानुभाव यहीं सभी मुझे छोड़ने पड़ेंगे और मनुष्य लोक में जाकर माता के गर्भ में नौ मास अपवित्र और अशुचि स्थान में रहना पड़ेगा। अर्थात् देवलोक के सुखसामग्री, भोग के साधन छूट जायेंगे। यह सोचकर देवता देवलोक से आने से पूर्व बहुत दुःख का अनुभव करता है।106
अहमिन्द्र का लक्षण
मैं ही इन्द्र हूँ मेरे सिवाय अन्य कोई इन्द्र नहीं है। इस प्रकार वे अपनी प्रशंसा में ही आसक्त रहते हैं और देवों में उत्तम देव होने से अहमिन्द्र कहलाते हैं। कल्पातीत देव अहमिन्द्र नाम से प्रसिद्ध होते हैं।107
अहमिन्द्रों की विशेषताएँ
अहमिन्द्रों के जीवन में कुछ विशेषताएँ होती हैं जो कल्पोपपन्न देवों में नहीं होती। अहमिन्द्रों का परक्षेत्र में बिहार नहीं होता, क्योंकि वे शुक्ल लेश्या के प्रभाव से अपने ही भोगों द्वारा सन्तोष को प्राप्त होते हैं उन्हें वही सुखमय स्थान में जो सुख की उत्तम प्रीति होती है वह अन्यत्र कहीं नहीं प्राप्त होती। इसलिए वे परक्षेत्र में विचरने की इच्छा ही नहीं करते।108 अहमिन्द्र न तो आपस में असूया है, न ही दूसरों की निन्दा-चुगली करते हैं, न आत्म प्रशंसा करते हैं, न ही किसी से ईर्ष्या करते हैं, वे प्रसन्नतापूर्वक क्रीड़ा करते हैं।109 अहमिन्द्र जिनेन्द्र देव की अकृत्रिम प्रतिमाओं की पूजा करते हैं। अहमिन्द्र अणिमा, महिमादि अनेक गुणों से युक्त और वैक्रियिक शरीर को धारण करने वाले हैं। 10 सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र मोक्ष तुल्य सुख का अनुभव करते हैं। वे प्रवीचार (मैथुन) के बिना भी चिरकाल तक सुखी रहते हैं। अहमिन्द्रों को शुभ कर्म के उदय से जो निर्बाध सुख प्राप्त होता है वह प्रवीचार सुख से अनन्त गुणा अधिक होता है।।।।