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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
लोगों को जो कि उसके पूर्व जन्म में इष्ट/मित्र होते हैं, अपने आने की सूचना देने के लिए उद्यत होता है। इतने में देवता उसे रोकते हैं और पूर्वजन्म के मित्रों को मिलने से पूर्व देवलोक के सुख की अनुभूति कराने के लिए उसे प्रेरित करते हैं।
इसके अनन्तर नृत्य करने वाले अनीक जाति के देव अपनी दाहिनी भुजा से 108 कुमार और बाईं भुजा से 108 कुमारियाँ निकाल कर 32 प्रकार का नाटक करते हैं गन्धर्व, अनीक जाति के देव 49 प्रकार के वाद्यों के साथ छह राग और तीस रागनियाँ मधुर स्वर से अलापते हैं। इस नृत्य में मनुष्य लोक के 2000 वर्ष व्यतीत हो जाते हैं। वह देव वहाँ के सुख में लुब्ध हो जाता है और दिव्य भोगोपभोग में लीन हो जाता है।7
इन्द्रों के निवास स्थान, सभादि या इन्द्रों के नाम पर ही स्वर्गों का नाम रखा गया है। यह व्यवहार बारह स्वर्गों तक ही हो सकता है, इससे ऊपर देवलोकों में नहीं। देवों की अकाल (समय से पहले) मृत्यु नहीं होती।
देवों के प्रकार
देव चार प्रकार के कहे गए हैं78 - 1. भवनवासी 2. वाणव्यन्तर 3. ज्योतिष्क 4. वैमानिक।
1. भवनवासी देव - जो देव प्रायः भवनों में निवास किया करते हैं, वे भवनवासी देव कहलाते हैं। विशेषतया केवल असुरकुमार देव ही प्रायः आवासों में रहते हैं। इनके आवास नाना रत्नों की प्रभा वाले चंदेवों से युक्त होते हैं। उनके आवास इनके शरीर की अवगाहना के अनुसार ही लम्बे, चौड़े तथा ऊँचे होते हैं। शेष नागकुमारादि नौ प्रकार के भवनपति देव भवनों में रहते हैं, आवासों में नहीं।
2. वाणव्यन्तर देव - "वि" अर्थात् विविध प्रकार के “अन्तर" अर्थात् आश्रय जिनके हो, वे व्यन्तर हैं। भवन, नगर और आवासों में, विविध जगहों पर रहने के कारण ये देव व्यन्तर कहलाते हैं। व्यन्तरों के भवन रत्नप्रभापृथ्वी के प्रथम रत्नकाण्ड में ऊपर नीचे सौ-सौ योजन छोड़कर शेष 800 योजन प्रमाण मध्य भाग में हैं। इनके नगर तिर्यक् लोक में भी है और इनके आवास तीनों लोकों में हैं। अथवा जो अधिकतर वनों में, वृक्षों में, नन्दन वन, पाण्डुक वन, प्राकृतिक सौन्दर्य वाले स्थानों में या गुफादि के अन्तराल में रहते हैं, ये टूटे-फूटे घरों, शून्य स्थानों में भी रहते हैं। उनके नगर बाहर से गोल