________________
117
आदिपुराण में नरक-स्वर्ग विमर्श
देवलोक स्वर्गलोक (ऊर्ध्वलोक)
देव और उनकी उत्पत्ति
देव - देव शब्द दिव् धातु से निर्मित है। जो धुति, गति आदि को सूचित करता है। अतः देव के व्यावहारिक लक्षण यह है कि जिसका शरीर दिव्य अर्थात् सामान्य चर्म चक्षुओं से न दिखाई दें, जिसकी गति (गमन शक्ति) अति वेग वाली हो, जिसके शरीर में रक्त, माँस आदि न हो, मनचाहे रूप बना सके, आँखों के पलक न झपकें, पैर जमीन से चार अंगुल ऊँचे रहें, शरीर की छाया न पड़े। देव एक गति का नाम है। इस गति में जो जन्म लेता है, वह देव कहा जाता है। सैद्धान्तिक भाषा में देवगतिनाम कर्म के उदय से जीव जिस पर्याय को धारण करता है वह देवगति है और उस देवायु को भोगने वाला जीव देव कहा जाता है।73 आभ्यन्तर कारण देवगति नामकर्म के उदय होने पर नाना प्रकार की बाह्य विभूति से द्वीप समुद्रादि अनेक स्थानों में इच्छानुसार जो क्रीड़ा करते हैं वे देव कहलाते हैं।
जो दिव्यभाव-युक्त अणिमादि आठ गुणों से नित्य क्रीड़ा करते हैं और जिनका प्रकाशमान दिव्य शरीर हैं, वे देव कहे गये हैं।75
देवलोक में देवों की उत्पत्ति
देवों की उत्पत्ति उत्पादशय्या में होती हैं अर्थात् देव एक विशेष प्रकार की शय्या पर जन्म लेते हैं, वे गर्भज नहीं होते। उत्पादशय्याएँ देवस्थान में संख्यात योजन वाली संख्यात होती है। शय्याओं पर देव दृष्य वस्त्र ढका रहता है। धर्मात्मा और पुण्यात्मा जीव जब उसमें उत्पन्न होते हैं तो वह अंगारों पर डाली हुई रोटी के समान फूल जाती है। तब पास में रहे हुए देव उस विमान में घंटानाद करते हैं और उसकी अधीनता वाले सभी विमानों में घण्टे का नाद हो जाता है। घण्टानाद सुनकर देव और देवियाँ उस उत्पाद शय्या के पास इकट्ठे हो जाते हैं और जय जयकार की ध्वनि से विमान गूंज उठता है। अन्तर्मुहूर्त (48 मिनट के अन्तर्गत समय को) के बाद उत्पन्न हुआ देव छहों पर्याप्तियों (आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छवास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति, मन पर्याप्ति) से पर्याप्त होकर तरुण अवस्था वाले शरीर को धारण कर लेता है और देवदूष्य वस्त्रों से अपने शरीर को आच्छादित कर शय्या पर बैठ जाता है। पास खड़े देव उससे उनके नाथ बनने के हेतु पूछते हैं। इसके उत्तर में वह अवधिज्ञान के द्वारा अपने पूर्वजन्म पर विचार करता है और उन