SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 110 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण 2. परस्परवैरजन्य वेदना - नारकियों को अवधिज्ञान से अपने पूर्वभवसम्बन्धी वैर-भाव जागृत हो जाते हैं। क्रोधी नारकी नवीन नारकियों को शस्त्रों से छेदन-भेदन कर देते हैं, डण्डे से पीटते हैं, शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं, नारकियों का शरीर पारे के समान बिखर जाता है और फिर आपस में मिल जाता है, एक-दूसरे को अपना पूर्व वैर बतलाकर आपस में दण्ड देते रहते हैं - अर्थात् आपस में लड़ाई-झगड़ा, मार-पीट करते रहते हैं।27 पहले तीन पृथ्वियों तक अतिशय भयंकर असुर कुमार जाति के देव नारकियों को आपस में वैर का स्मरण कराकर लड़ने की प्रेरणा देते हैं। परमाधर्मी देवों द्वारा असहनीय वेदनाएँ - परमाधर्मीदेव नारकियों को असह्य वेदनाएँ देते हैं। परमाधर्मी देव तीन पृथ्वियों तक ही वेदना देते हैं इससे आगे की भूमियों में नहीं।29 नारकियों को खोलती हुई ताँबा आदि धातुएँ पिलायी जाती है। जो जीव पूर्वभव में मांसभक्षण करते थे उन्हें अपने ही शरीर का माँस काटकर खिलाया जाता है और जो बड़े शोक से माँस खाया करते थे, संडासी से उनका मुख फाड़कर गले में जबरदस्ती तपाये हुए लोहे के गोले निगलाये जाते हैं। जो पूर्वभव से परस्त्री का सेवन अर्थात् रति-क्रीड़ा करते थे उन्हें लोहे की तपायी हुई पुतली से जबरदस्ती गले से आलिंगन कराते हैं।2 कुछ नारकीयों को टुकड़े-टुकड़े कर कोल्हू में गन्ने के समान पीलते हैं। कुछ नारकीयों को कढ़ाई में खोलकर उनका रस बनाते हैं।33 नरक के भयंकर गीध34 अपनी वज्रमयी चोंच से उन नारकीयों के शरीर को चीर डालते हैं और काले-काले कुत्ते अपने तीखे नखों से फाड़ डालते हैं।35 लोहे की पुतलियों के आलिङ्गन से तत्क्षण ही मूछित हुए उन नारकियों को अन्य नारकी लोहे के परेनों से मर्मस्थानों को पीटते हैं।36 नारकियों को भिलावे के रस से भरी हुई नदी में जबरदस्ती गिरा देते हैं। क्षणभर में उनका सारा शरीर गल जाता है और खारा जल उनके घावों पर छिड़का जाता है जिससे उन को भारी दुःख पहुँचता है। नारकियों को जलती हुई अग्नि की शय्या पर सुलाते हैं। दीर्घनिद्रा का सुख लेने के लिए नारकी शय्या पर सोते हैं, उनका सारा शरीर जलने लगता है।38
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy