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आदिपुराण में नरक-स्वर्ग विमर्श
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दुर्गन्धित, घृणित-देखने में अयोग्य और बुरी आकृति वाले शरीर की पूर्ण रचना करके नरक में उत्पन्न होते हैं।2।
जब नारकी के शरीर की रचना अर्थात् पाँचों इन्द्रियाँ - श्रोत, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन और छह पर्याप्तियाँ - आहार, शरीर, इन्द्रिय, भाषा, मन, श्वासोच्छास यह छ: पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाती है तब नारकी वृक्ष से गिरे पत्ते के समान, अग्नि की तरह जलती हुई भूमि पर गिरते हैं।22
जिस भूमि पर नारकी गिरते हैं वहाँ अनेक तीक्ष्ण शस्त्र गड़े हुए होते हैं। नारकी उन तीक्ष्ण हथियारों की नोक पर गिरते ही उनके शरीर के सभी अंग छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। इस दुःख से दु:खी होकर पापी आत्माएँ विलाप करती हैं।
नरक में नारकी जीवों की वेदनाएँ
नरक में नारकी जीवों को तीन प्रकार की वेदना भोगनी पड़ती है1. क्षेत्रजन्य वेदना। 2. परस्पर वैर जन्य वेदना – नारकियों द्वारा एक दूसरे को दी जाने
वाली वेदना। 3. परमाधर्मी देवों द्वारा दी जाने वाली वेदना।
ये उपर्युक्त तीन प्रकार की वेदनाएँ नारकी जीव अपने पूर्वजन्म में किए गये पापों के कारण फल भोगते हैं किन्तु निमित्त की अपेक्षा ये तीन भेद बताये गये हैं24 -
1. नरक में क्षेत्रजन्य वेदना - नरक में क्षेत्रजन्य वेदना असह्य है। गर्मी इतनी अधिक होती है कि नारकी जीव भाड़ में डाले हुए तिलों के समान उछलते हैं फिर नीचे गिर जाते हैं। नरक की भूमि का स्पर्श छुरे की धार जैसा होता है। अत्यन्त दुर्गन्ध, चारों ओर भय ही भय होता है। खैर के धधकते अंगारों अर्थात् जलती हुई अग्नि के समान वहाँ की पृथ्वी की तप्त होती है। नारकी उष्ण वेदना से बिलबिलाते अर्थात् रोते और चिल्लाते हैं।25 पहले की चार पृथ्वियों में ऊष्ण वेदना है। पाँचवीं भूमि में उष्ण और शीत दोनों प्रकार की वेदनाएँ होती हैं और छठी और सातवीं पृथ्वी में शीत वेदना होती है। यह उष्ण और शीत वेदनाएँ नीचे-नीचे के नरकों में क्रम-क्रम से बढ़ती जाती है।26