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________________ (ii) इसी परिप्रेक्ष्य में आध्यात्मिक दृष्टिकोण से चिन्तन जब किया जाता है, तब यह विदित होगा कि आत्मा का वर्गीकृत रूप वस्तुतः त्रिविध है। प्रथम "बहिरात्मा" है, द्वितीय अन्तरात्मा है और तृतीय परमात्मा है। बहिरात्मा जड़वत् है, जड़ नहीं है। वह चेतन-स्वरूप है, परन्तु बहिरात्मा जड़वत् इसलिये है कि उसमें सम्यग्दर्शन नहीं है, तब सम्यग्ज्ञान भी नहीं है। फलतः वह आत्मा बहिरात्मा है, मिथ्यादृष्टि है, गुरुकर्मी है, उसमें बोध नहीं है, उसने भेद विज्ञान प्राप्त नहीं किया है और वह इन्द्रियों और मन को आत्मा मानता है, उस का दृष्टिकोण पौद्गलिक है भौतिक है, द्वितीय आत्मा अन्तरात्मा है। अन्तर से अभिप्राय यहाँ दूरी नहीं है, भिन्नता भी नहीं है। अन्तर से अभिप्राय अन्तः आत्मा है, वह अन्तरात्मा कहलाता है। जो अपने के लिए आत्मा के लिये प्रयत्नशील और प्रवृत्तशील रखता है। आत्मा के लिये आत्मा में रमण करता है। अन्तरात्मा आत्मा में रमण तब करेगा, जब उसको भेद-विज्ञान होगा। जड़ और चेतन इन दोनों का पृथक्-पृथक् अनुभव करेगा। उन्हें मानेगा और जीवन मुक्त अवस्था में स्थिर एवं स्थित रहेगा। परम अवस्था अर्थात् स्वरूप में रमण करने वाला आत्मा परमात्मा है। अन्तरात्मा से जब आधि, व्याधि और उपाधि का समूलतः निराकरण हो चुका है, तब अवशिष्ट आत्मा शुद्धात्मा है। ऐसी आत्मा काषयिक परिणाम से सर्वथा मुक्त है, जन्म-मृत्यु के कारागृह से सर्वदा विमुक्त है। उसका नाम "परमात्मा" है। यही स्वरूपावस्था है और आध्यात्मिक अभ्युदय है। इतना ही नहीं, अध्यात्म स्वप्निल आदर्श नहीं है, अपितु जीवन का यथार्थ है, जो निज को निज में समाहित कर देता है। यह ध्रुव सत्य है कि मानव स्वभावतः एक जिज्ञासु प्राणी है। दर्शन का आविर्भाव उस की इसी जिज्ञासा प्रधान वृत्ति का परम-परिणाम है। इसी जिज्ञासा वृत्ति के अपूर्व-प्रभाव के स्वरूप विविध-दर्शन भी आस्तित्व में अवस्थित हैं और कालान्तर में इन बहुविध-दार्शनिक अवधारणाओं ने परस्परम में अतिशय-समीक्षाएँ भी प्रस्तुत की है। उन समीक्षाओं के फलश्रुति रूप नितान्त-गहन दार्शनिक-विमर्शन से सन्दर्भित महाग्रन्थ भी निर्मित हुए हैं। जैन धर्म और जैन दर्शन में आगमीय-विवेचना के रूप में धार्मिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक और समीक्षात्मक दृष्टिकोण के आधार पर शताधिक प्रामाणिक ग्रन्थरत्न विरचित हुए हैं। यह अति स्पष्ट है कि उन ग्रन्थ-निधि में मनीषी-आचार्य जिनसेन द्वारा प्रणीत "आदि पुराण" एक महत्त्वपूर्ण गन्थ है, जो वस्तुतः एक सारस्वत-संरचना है। यह वह ग्रन्थ है, जो जैन-मीमांसा, तात्त्विक-मीमांसा, एवं आचार- दर्शन का एक अधिकृत ग्रन्थ है। उक्त ग्रन्थ में जैन-विद्या से सन्दर्भित-समस्याओं का प्रस्तुतिकरण एवं समाधान समीचीन रूप से उपस्थित है। भाषा की दृष्टि से यह ग्रन्थ संस्कृत भाषा में निबद्ध है।
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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