________________
प्रस्तावना
धर्म, दर्शन और अध्यात्म इन त्रिविध विषय का प्रायः समानार्थक के रूप में प्रयोग किया जाता है। किन्तु गहराई से चिन्तन करते हैं, तभी यह ज्ञात होगा कि इन तीनों का मूलभूत अर्थ भिन्न है। अर्थ ही नहीं, अपितु क्षेत्र भी भिन्न है। धर्म का सम्बन्ध आचार से है। यह उचित है कि धर्म का सम्बन्ध अन्तरंग और बहिरंग इन दोनों प्रकार के आचार से है। अध्यात्म भी धर्म का ही एक आन्तरिक रूप है। इसीलिये धम के दो रूप प्रतिपादित हुए हैं--एधम "निश्चय" है और द्वितीय "व्यवहार" है। निश्चय धर्म अन्तरंग में "स्व" की शुद्धानुभूति और शुद्धोपलब्धि है। जबकि व्यवहार बहिर्जगत् से सन्दर्भित है, विधि एवं निषेध से सम्बन्धित है। निश्चय त्रिकालाबाधित सत्य है। शाश्वत
और सार्वत्रिक होता है। दर्शन का अर्थ तत्त्वों की मीमांसा और विवेचना से है। दर्शन का क्षेत्र सत्य का परीक्षण है। जीव और जगत एक निगूठ पहेली है। पस्तुत प्रहेलिका को सुलझाना ही "दर्शन" का कार्य है। "दर्शन" वास्तव में प्रकृति और पुरुष, लोक और परलोक, आत्मा और परमात्मा, दृष्ट और अदृष्ट, य ओर वह प्रभति गम्भीर रहस्य को अतिशय रूप से उद्घाटित कर देता है। इतना ही नहीं, वह सत्य और तथ्य का यथार्थ रूपेण मूल्यांकन करता है। दर्शन यथार्थ अर्थ में वह दिव्य चक्षु है, जो मिथ्यापूर्ण मान्यताओं के घनीभूत आवरणों को भेद कर सत्य के मौलिक स्वरूप का साक्षातकार करता है। अध्यात्म वस्तुत: जीवन-विशुद्धि का अभिन्न अंग है, सर्वांगीण भव्य रूप है और वह परिशोधन करता है। "स्व" जो कि "स्वयं" से सर्वथा विस्मृत है। अध्यात्म इस विस्मरण को तोड़ता है। "स्व" जो स्वयं ही अपने "स्व" के अज्ञान-तमस का शरण स्थल बन गया है। अध्यात्म इस अन्ध तमस् को विध्वस्त करता है। स्वरूप संस्मृति की दिव्य ज्योति जलाता है। अध्यात्म अन्तरंग में परिसुप्त ईश्वरत्व को जगाता है। उसे स्वर्णिम-प्रकाश में लाता है। राग-द्वेष के आवरणों की परतों को हटा कर अध्यात्म सधक को उसके अपने विशुद्ध "स्व" तक पहुँचाता है, उसे अपना अन्तर्दर्शन कराता है। अध्यात्म का प्रारम्भ "स्व' को जानने और पाने की गहरी जिज्ञासा से होता है और अन्ततः "स्व" के पूर्ण-दोध में "स्व" की उपलब्धि में इस की समाप्ति है।