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________________ 104 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण कहते हैं और उनके रहने का स्थान नरक कहलाता है। जो शीत, ऊष्ण, दुर्गन्धि आदि असंख्य दुःखों की तीव्रता का केन्द्र होता है, वहाँ पर जीव बिलों अर्थात् सुरंगों में उत्पन्न होते हैं, वे वही निवास करते हैं और परस्पर में एक- दूसरे को मारने-काटने आदि के द्वारा दुःख भोगते रहते हैं। 2 यथार्थ में जीव द्वारा किये गये दुष्कृत्यों अर्थात बुरे कर्मों का जहाँ फल भोगा जाता है, उस फल भोगने वाले स्थान का नाम ही नरक है। अथवा धर्मशास्त्र के अनुसार नरक वह स्थान है जहाँ पापियों अर्थात् घोर पाप कर्म करने वाली आत्माओं को अपने द्वारा किये अशुभ परिणामों का फल भोगने के लिए जाना पड़ता है, वह नरक है। जो जीवों को शीत, ऊष्ण (गर्मी - सर्दी) आदि तीव्र वेदनाओं अर्थात् घोर यातनाओं से आकुल व्याकुल कर दें, वह स्थान को नरक की संज्ञा दी जाती है। अथवा पापी जीवों को अत्यान्तिक दुःखों की प्राप्ति कराने वाला स्थान ही नरक है। 4 नरकों की संख्या मध्यलोक के नीचे का प्रदेश अधोलोक कहलाता है इसमें क्रमशः नीचे नीचे सात पृथ्वियाँ हैं जो सात नरकों के नाम से जानी जाती है। ये भूमियाँ एक दूसरे से नीचे हैं। परन्तु एक-दूसरे से सटी हुई नहीं है। नरकों को पृथ्वियाँ या भूमियाँ भी कहा जाता है। सात नरकों के नामोल्लेख इस प्रकार कहे गये हैं 1. रत्नप्रभा 2. शर्कराप्रभा 3. बालुकाप्रभा 4 पङ्कप्रभा 5. धूमप्रभा 6. तमः प्रभा 7. महातमः प्रभा । ' उक्त प्रकार के सातों नरक क्रमशः धम्मा, वंशा, शिला, अंजना, अरिष्टा, मधवी और माधवी नामों से भी विख्यात है । " 1. रत्नप्रभा विविधरत्नों की प्रधानता के कारण इस पृथ्वी को रत्नप्रभा कहा जाता है। रत्नप्रभा पृथ्वी काले रंग वाले भयंकर रत्नों से व्याप्त होने के कारण इस पृथ्वी का नाम रत्नप्रभा पड़ा' अथवा जिसकी प्रभाव चित्र आदि रत्नों की प्रभा के समान है, वह रत्नप्रभा भूमि है । " रत्नप्रभा के तीन काण्ड (भाग) हैं 1. खर भाग 2. पंक भाग 3. अव्बहुल भाग ।
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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