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तृतीय अध्याय आदिपुराण में नरक - स्वर्ग विमर्श
नरक एवं स्वर्ग
आकाश एक अखण्ड द्रव्य है। धर्म एवं अधर्म द्रव्यों के कारण लोक एवं आलोक रूप से आकाश द्रव्य विभक्त हो जाता है। इन्हीं दो तत्त्वों (द्रव्यों) के कारण यह लोकाकाश अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्व लोक इन तीन भागों में विभक्त हो जाता है।
अधस्तिर्यगुपर्याख्यैस्त्रिाभिर्भेदैः समन्वितः ।
आ. पु. 4.40
अधोलोक का आकार स्वभाव से वेत्रासन के समान है। नीचे से विस्तृत और ऊपर सकड़ा हुआ है। मध्यम लोक झल्लरी के समान सब ओर फैला हुआ है और ऊर्ध्वलोक मृदंग के समान बीच में चौड़ा और दोनों भागों में सकड़ा है अथवा दोनों पाँव फैलाकर और कमर पर दोनों हाथ रखकर खड़े हुए पुरुष का जैसा आकार होता है, लोक का भी वैसा ही आकार मानते हैं। यह लोक तालवृक्ष के आकार वाला है।' आदिपुराण में वर्णित जीव पाप कर्मों का फल भोगने के लिए जिस गति (योनि) में पैदा होता है उस स्थान का क्या कहा जाता है? क्या-क्या दुःख भोगे जाते हैं। उस अधोलोक का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है।
नरक और उसके प्रकार
नरक (अधोलोक )
अतीत के अशुभ योगों में पापाचरण करने वाले जीव अपने ही कृतपापों के फल भोगने के लिए अधोवर्ती लोकों के जिन स्थानों में उत्पन्न होते हैं वे नरक कहलाते हैं।
प्रचुर रूप से पाप कर्मों के फलस्वरूप अनेकों प्रकार के असह्य दुःखों को भोगने वाले जीव विशेष नारकी कहलाते हैं। उनकी गति को नरक गति