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________________ आदिपुराण में तत्त्व विमर्श व जीव तत्त्व विषयक विचारधारायें 97 166. वही। 167. कर्म. ग्र. (दे.सू.) भा. 4, पृ. 107 168. वही, पृ. 108 169. वही। 170. मृदुपाणितले स्पर्श रसगन्धौ मुखाम्बुजे। शब्दमालपिते तस्याः तनौ रूपं निरुपयन्।। - आ.पु., 8.11; 36.130 171. कर्म. ग्र. (दे.सु.) भा. 4, पृ. 108 172. जात्यविनाभावित्रसथावरोदयजो भवेत् कायः। स जिनमते भणितः पृथ्वीकायादिषड्भेदः।। - गो.सा. (जी.का.) गा. 181 173. स्था.सू., 1.1.53 (विवेचनिका); कर्म ग्र. (दे.सू.) भा. 4, पृ. 108 174. वही। 175. वही। 176. वही। 177. वही। 178. वही 179. जै.ध. (सु.मु.) पृ. 78 180. त.सू. (के.मु.) 2.14 (वि.); कर्म ग्र. (दे.सू.) भा. 4, पृ. 109 181. कर्म.ग्र. (भा. 4) पृ. 109; त.सू. (के.मु.) 2.14 वि. 182. वही। 183. कर्म.ग्र. (भा.4) स्वो. वृ.पृ. 127 184. पुद्गलविपाकिदेहोदयेन मनोवचन:काययुक्तस्य। जीवस्य या हि शक्तिः कर्मागमकारणं योगः।। मनोवचनयोः प्रवृत्तयः सत्यासत्योभयानुभयार्थेषु। तन्नाम भवति तदा तैस्तु योगात् हि तद्योगाः।। - गो.सा.(जी.का.)गा. 216-217 185. त.सू. (के.मु. 7.1) विवेचन 186. कर्म.ग्र. (दे.सू.) भा. 4, स्वो.टी, पृ. 101 187. जै.सि.को. भा. 3, पृ. 583; कर्म ग्र. (दे.सू.) भा. 4, पृ. 101 188. कर्म ग्र. (दे.सू.) भा. 4, पृ. 113 189. सुखदु:खसुबहुसस्यं कर्मक्षेत्रं कृषति जीवस्य। संसारदूरमर्यादं तेन कषाय इतीम ब्रुवन्ति।। ___ - गो.सा.(जी.का.)गा. 282; कर्म. ग्र. (दे.सू.) भा. 4. पृ. 113;
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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