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आदिपुराण में तत्त्व विमर्श व जीव तत्त्व विषयक विचारधारायें
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166. वही। 167. कर्म. ग्र. (दे.सू.) भा. 4, पृ. 107 168. वही, पृ. 108 169. वही। 170. मृदुपाणितले स्पर्श रसगन्धौ मुखाम्बुजे। शब्दमालपिते तस्याः तनौ रूपं निरुपयन्।।
- आ.पु., 8.11; 36.130 171. कर्म. ग्र. (दे.सु.) भा. 4, पृ. 108 172. जात्यविनाभावित्रसथावरोदयजो भवेत् कायः।
स जिनमते भणितः पृथ्वीकायादिषड्भेदः।। - गो.सा. (जी.का.) गा. 181 173. स्था.सू., 1.1.53 (विवेचनिका); कर्म ग्र. (दे.सू.) भा. 4, पृ. 108 174. वही। 175. वही। 176. वही। 177. वही। 178. वही 179. जै.ध. (सु.मु.) पृ. 78 180. त.सू. (के.मु.) 2.14 (वि.); कर्म ग्र. (दे.सू.) भा. 4, पृ. 109 181. कर्म.ग्र. (भा. 4) पृ. 109; त.सू. (के.मु.) 2.14 वि. 182. वही। 183. कर्म.ग्र. (भा.4) स्वो. वृ.पृ. 127 184. पुद्गलविपाकिदेहोदयेन मनोवचन:काययुक्तस्य।
जीवस्य या हि शक्तिः कर्मागमकारणं योगः।। मनोवचनयोः प्रवृत्तयः सत्यासत्योभयानुभयार्थेषु। तन्नाम भवति तदा तैस्तु योगात् हि तद्योगाः।।
- गो.सा.(जी.का.)गा. 216-217 185. त.सू. (के.मु. 7.1) विवेचन 186. कर्म.ग्र. (दे.सू.) भा. 4, स्वो.टी, पृ. 101 187. जै.सि.को. भा. 3, पृ. 583; कर्म ग्र. (दे.सू.) भा. 4, पृ. 101 188. कर्म ग्र. (दे.सू.) भा. 4, पृ. 113 189. सुखदु:खसुबहुसस्यं कर्मक्षेत्रं कृषति जीवस्य। संसारदूरमर्यादं तेन कषाय इतीम ब्रुवन्ति।। ___ - गो.सा.(जी.का.)गा. 282;
कर्म. ग्र. (दे.सू.) भा. 4. पृ. 113;