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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
स्था.सू. 4.1.15 (विवेचनिका) 190. स्था.सू. 4.1.15 (विवेचनिका) 191. कषायवैरिणस्तीव्रान् क्रोधादीन् विनिवर्तयन् - आ.पु. 21.92 192. स्था.सू. 1.1.50 विवेचनिका। 193. वही। 194. वही। 195. स्था.सू. 1.1.50 विवेचनिका 196. (क) जानाति त्रिकालविषयान् द्रव्यगुणान् पर्यायांश्च बहुभेदान्।
- गो.सा. (जी.का.) गा. 299 (ख) सामान्य-विशेषात्मके वस्तुति विशेषग्रहणात्मको बोध इत्यर्थः।
-कर्म.ग्र. भा. 4, स्वो.टी., पृ. 127 197. कर्म.वि. (आ.दे.मु.), भा. 5, पृ. 210 198. कर्म.ग्र. (दे.सू.) भा. 4, पृ. 129 199. स्था.सू. 5.3.78 (वि.); कर्म ग्र. (दे.सू.) भा. 4, पृ. 117 200. वही। 201. वही। 202. स्था.सू. 5.3.78 (वि.); कर्म ग्र.(दे.सू.) भा. 4, पृ. 117 203. वही। 204. कर्म.ग्र. (भा.4) स्वो.टी. पृ. 1273;
व्रतसमितिकषायाणां दण्डानां तथेन्द्रियाणां पंचानाम्। धारणपालननिग्रहत्यागजयः संयमो भणितः।। - गो.सा. (जी. का.) गा. 465;
कर्म. ग्र. (दे.सू.) भा. 4, पृ. 102 205. कर्म.वि. भा. 5 (आ.दे.मु.) पृ. 212; कर्म ग्र. (दे.सू.) भा. 4, पृ. 120 206. वही। 207. अप्रतिक्रमणे धर्मे जिनाः सामायिकाह्वये। चरन्त्येकयमे प्रायरचतुर्ज्ञानविलोचनाः।।
- आ.पु. 20.171 208. कर्म वि. (भा. 5), पृ. 212; कर्म ग्र. (दे.सू.) भा. 4 पृ. 120 209. कर्म.ग्र. (भा. 4), स्वो.टी. पृ. 130;
पंचाशक प्रकरण 17, आ.हरि.वृत्ति पृ. 790; कर्म ग्र. (दे.सू.) भा. 4 पृ. 120 210. कर्म.ग्र. (पं.सु.ला) भा.4, गा.12 . वि;
कर्म.ग्र. (भा. 4), स्वो.टी. पृ. 130; कर्म ग्र. (दे.सू.) भा. 4 पृ. 120 211. स्था.सू. 5.2.43 (वि.)