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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
संसारी आत्मा से अनादिकाल से सम्बन्धित है। प्रत्येक जीव के साथ कम से कम ये दो शरीर तो रहते ही है। जन्मान्तर के समय ये दो शरीर ही होते हैं। जन्मान्तर के अतिरिक्त जीव में अधिक से अधिक एक साथ चार शरीर हो सकते हैं।293
जीव के जब तीन शरीर होते हैं तो पहले तैजस, कार्मण और औदारिक, या दूसरे तैजस, कार्मण, वैक्रिय। पहला प्रकार मनुष्य तिर्यंचों में और दूसरा प्रकार देव-नारकों में जन्म से लेकर मरणपर्यन्त पाया जाता है। जब चार होते हैं - तो तैजस, कार्मण, औदारिक और वैक्रिय; या तैजस, कार्मण, औदारिक
और आहारक। पाँच शरीर एक साथ नहीं होते, क्योंकि वैक्रिय लब्धि और आहारक लब्धि का प्रयोग एक साथ नहीं हो सकता। वैक्रिय लब्धि के प्रयोग के समय नियमतः प्रमत्त दशा होती है, किन्तु आहारक के विषय में यह बात नहीं है। आहारक लब्धि का प्रयोग तो प्रमत्त, दशा में होता है, किन्तु आहारक शरीर बना लेने के बाद शुद्ध अध्यवसाय होने के कारण अप्रमत्तावस्था रहती है। अत: एक साथ इन दो शरीरों का रहना सम्भव नहीं। शक्ति रूप से एक साथ पाँचों शरीर रह सकते हैं, क्योंकि आहारक-लब्धि और वैक्रिय का साथ रहना सम्भव है, किन्तु उनका प्रयोग एक साथ नहीं हो सकता; अतः पाँचों शरीर अभिव्यक्ति रूप से एक साथ नहीं रह सकते।294
समीक्षा
जैन साहित्य कर्म द्रव्य को अधिकृत करके बहुत ही परिवृद्ध (विस्तृत) हुआ है। वहाँ आत्म तत्त्व की अनदेखी की हो ऐसी बात नहीं है। सम्पूर्ण भारतीय दर्शन आत्म तत्त्व के विचारों से भरा पड़ा है। अनात्मवादी चार्वाक दर्शन ने भी आत्मतत्त्व नामक कोई तत्त्व नहीं है, यह बात नहीं, अपितु उसके स्वरूप के विषय में मत उपलब्ध है। अभिप्राय यह है कि भारतीय दर्शनों ने आत्म तत्त्व के अस्तित्व के विषय में भ्रान्ति नहीं है। अपितु उसका क्या स्वरूप है, इस विषय में ही विसंवाद है।
समस्त भारतीय साहित्य में आत्मा का स्वरूप चैतन्य माना गया है। वह ज्ञान स्वरूप "उपयोग" वाला है। __आत्मा में चैतन्य नामक गुण औपाधिक नहीं है। चैतन्य आत्मा का साधन है अथवा आत्म इससे ज्ञान प्राप्त करता है। यह तथ्य होने पर भी चैतन्य आत्मा का करण नहीं है। जिस प्रकार सर्प स्वयं को लपेटने में कर्ता भी है तो करण भी है। उसी प्रकार चैतन्य स्वरूप होता हुआ भी चैतन्य से ज्ञान ग्रहण करता