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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
(2) वैक्रिय शरीर
अपनी इच्छा के अनुसार एक होते हुए भी अनेक रूप धारण करने वाला अनेक रूप होकर भी एक रूप धारण करने वाला, छोटे शरीर से बड़ा बनकर प्रकट होने वाला और बड़े से छोटा बन जाने वाला, दृश्य होकर अदृश्य और अदृश्य होकर दृश्य हो जाने वाला, बिना किसी आश्रय के आकाश में गमन कर सकने का सामर्थ्य रखने वाला, इस प्रकार की अन्य विशिष्ट क्रियाएँ करने वाला शरीर ही वैक्रिय शरीर कहलाता है। नारकी और देव वैक्रिय शरीर वाले होते हैं।280
कई मनुष्य और तिर्यञ्चों को भी लब्धि प्रत्यय वैक्रियशरीर प्राप्त हो सकते हैं, परन्तु वैक्रिय लब्धि के प्रयोग की शक्ति उन्हीं तिर्यञ्च या मनुष्यों को प्राप्त हो सकती है जिन्होंने पूर्वभव में या इस भव में विशेष संयम, तप और शुभ अनुष्ठान किया हो।281
आदिपुराण में वर्णित अणिमा, महिमा आदि गुणों से प्रशसनीय वैक्रियिक शरीर को धारण करने वाला अहमिन्द्र का वर्णन है।282
(3) आहारक शरीर
आहारक शरीर साधक को आहारक ऋद्धि से उत्पन्न होता है।283 वह शरीर स्वर्ण के समान दैदीप्यमान होता है। सूक्ष्म पदार्थ का ज्ञान करने के लिए या असंयम को दूर करने की इच्छा से प्रमत्त संयत जिस शरीर की रचना करता है, वह आहारक शरीर है। जिसने आहारक शरीर नामकर्म का बन्ध किया हुआ हो उसी को वह शरीर प्राप्त होता है। इसका उदय योगजन्य लब्धियों से सम्पन्न, चौदह पूर्वधर प्रमत्त संयत को एक जन्म में अधिक से अधिक तीन बार प्राप्त हो सकता है। चौदह पूर्वधर मुनि किसी अन्य क्षेत्र में विराजित तीर्थंकर भगवान के पास भेजने के लिये आहारक लब्धि से अति विशुद्ध स्फटिक रत्न के सदृश एक हाथ का एक छोटा शरीर निकालते है वह आहारक शरीर कहलाता है।284
छठे गुणस्थानवर्ती मुनि अपने को सन्देह होने पर जिस शरीर के द्वारा केवली भगवान के पास जाकर सूक्ष्मपदार्थों का आहरण करता है, उसे आहारक शरीर कहते हैं।285 (4) तैजस शरीर
तैजस पुद्ग्लों के द्वारा बना हुआ शरीर तैजस शरीर कहलाता है। प्राणियों