SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 82 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण शास्त्रीय लक्षण है - वर्तमानकाल की अपेक्षा सर्वघाती कर्मों, दलिकों का उदयाभावी क्षय-झड़ जाना तथा भविष्यकाल की अपेक्षा सर्वघाती कर्म दलिकों का सदवस्थारूप उपशम अर्थात् राख से ढकी आग के भाँति सत्ता में तो रहे किन्तु उनका उदय न हो। इसकी विशेषता यह है कि जीव के परिणामों की शुद्धाशुद्ध दशा रहती है। कुछ मलिनता और अधिकतर स्वच्छभाव। इसमें मिश्रित दशा है इसलिए क्षायोपशमिक भाव के लिए मिश्र शब्द प्रयोग हुआ है। (ग) औपशमिक भाव - औपशमिक भाव वह है - जो उपशम से पैदा हो - उपशम एक प्रकार की आत्मशुद्धि है, जो सत्तागम कर्म का उदय बिल्कुल रुक जाने पर वैसे ही होती है जैसे मल नीचे बैठ जाने पर जल में स्वच्छता आ जाती है।268 इसके अतिरिक्त औदयिक और पारिणामिक भाव भी कहे गये हैं - (घ) औदायिक भाव - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के निमित्त से होने वाले जीव का भाव "औदायिक भाव" कहलाता है। जैसे-मल के मिल जाने पर जल मलीन होता है वैसे ही औदायिक भाव एक प्रकार का आत्मिक कालुष्य है।269 (ङ) पारिणामिक भाव – पारिणामिक भाव द्रव्य का वह परिणाम है, जो सिर्फ द्रव्य के अस्तित्व से अपने आप हुआ करता है अर्थात् किसी भी द्रव्य का स्वाभाविक स्वरूप परिणमन ही पारिणामिक भाव कहलाता है।270 ये ही पाँच भाव27। आत्म के स्वरूप हैं अर्थात् संसारी या मुक्त कोई भी आत्मा हो उसके सभी पर्याय उक्त पाँच भावों में से किसी न किसी भाव वाले अवश्य होंगे। ये सभी भाव जीव के जीवत्व गुण अर्थात् जिस गुण के कारण जीव जीवित रहता है, की अपेक्षा से बताये गये हैं। यद्यपि जीव में अस्तित्व, वस्तुत्व आदि अनेक गुण है; किन्तु जीवत्व गुण उसका असाधारण गुण है, यह अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता; इसलिए यहाँ जीव के जीवत्व गुण की अपेक्षा उसके भावों का वर्णन हुआ है।272 8. अल्पबहुत्व - अल्पबहुत्व का अर्थ है न्यूनाधिकता, कम और अधिक होना। इस अपेक्षा से औपशमिक सम्यग्दर्शन सबसे कम, क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन इससे असंख्यात गुणा और क्षायिक सम्यग्दर्शन अनन्तगुणा होता हैं यह विचार सम्यक्त्वधारी जीवों की अपेक्षा से हैं। क्षायिक सम्यग्दर्शन अनन्तगुणा होने का कारण यह है कि यह जीव के सिद्ध अवस्था में भी रहता है। सिद्ध जीव अनन्त है। दूसरे शब्दों में क्षायिक सम्यग्दर्शन शाश्वत है, एक बार होने के बाद सदा रहता है।273
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy