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आदिपुराण में तत्त्व विमर्श व जीव तत्त्व विषयक विचारधारायें
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5. काल - (समय) काल की अपेक्षा सम्यग्दर्शन अनादि-अनन्त है। भूतकाल में ऐसा कोई समय नहीं था जब सम्यग्दर्शन का अस्तित्व न रहा हो। इसी तरह भविष्य में भी सम्यग्दर्शन रहेगा और वर्तमान में तो है ही।261
6. अन्तर (विरहकाल) - एक जीव की अपेक्षा सम्यग्दर्शन का विरहकाल कम से कम एक अन्तर्मुहूत (48 मिनट से कम समय) और अधिक से अधिक अपार्द्ध पुद्गल परावर्तन जितना समय है तथा अनेक जीवों की अपेक्षा से विचार किया जाये तो विरहकाल बिल्कुल भी नहीं होता है। विरहकाल का अभिप्राय है सम्यक्त्व का अभाव या जिस काल में जीव को सम्यक्त्व न हो।262
7. भाव - भाव का अभिप्राय है जीव के परिणाम। पदार्थों के परिणाम को भाव कहते हैं। चेतन के परिणाम को भाव कहा जाता है। भाव का अर्थ है - आत्मा की अवस्था या अन्त:करण की परिणति ही भाव है।263
चेतन व अचेतन सभी द्रव्य के अनेकों स्वभाव ही भाव है। जीव द्रव्य की अपेक्षा उनके पाँच भाव है - औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक भाव। कर्मों के उदय से होने वाले रागादि भाव औदायिक। उनके उपशम से होने वाले सम्यक्त्व व चारित्र औपशमिक है। उनके क्षय से होने वाले केवलज्ञानादि क्षायिक हैं। उनके क्षयोपशम से होने वाले मतिज्ञानादि क्षायोपशमिक है और कर्मों के उदय आदि से निरपेक्ष चैतन्यत्व आदि भाव पारिणामिक हैं। एक जीव में एक समय में भिन्न-भिन्न गुणों की अपेक्षा भिन्न-भिन्न गुणस्थानों में यथायोग्य भाव पाये जाने सम्भव हैं,264 यह प्रमुख रूप से तीन हैं -
(क) क्षायिक भाव (ख) क्षायोपशमिक भाव265 (ग) औपशमिक भाव।
सम्यक्त्व भी इन्हीं तीन रूपों में पाया जाता है तथा इन तीन भावों से ही सम्यक्त्व की शुद्धता का ज्ञान किया जाता है। अतः भाव यहाँ सम्यक्दर्शन शुद्धि की तरतमता द्योतित करता है।266 भावों के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है -
(क) क्षायिक भाव - जीव के यह भाव कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से होते हैं। कर्मों के क्षय हो जाने से जीव के परिणाम अत्यन्त विशुद्ध और निर्मल हो जाते हैं। यह भाव जीव में सादि अपर्यवसित तक बने रहते हैं क्योंकि प्रतिपक्षी कर्म का सम्पूर्ण क्षय अथवा विनाश हो जाने पर भावों में मलिनता नहीं आती।267
(ख) क्षायोपशमिक भाव - यह भाव कर्म के क्षयोपशम से होते हैं। क्षयोपशम शब्द “क्षय' और उपशम दो शब्दों की सन्धि से बना है इसका