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________________ 80 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण इस प्रकार उपर्युक्त चौदह मार्गणास्थानों में निम्नलिखित आदि अनुयोगों के द्वारा विशेष रूप से जीव का अन्वेषण करना चाहिए।253 अनुयोग अनुयोगों व्याख्यानाम् विधि प्रतिषेधाव्याम अर्थ प्ररूपणम्। विधि प्रतिषेध के द्वारा अर्थ की प्ररूपणा (व्याख्या) करना अनुयोग हैं।254 अनुयोग का अर्थ है व्याख्या या विवेचन। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अनुयोग की व्याख्या करते हुए लिखा हैश्रुत अर्थात् शब्द का उसके अर्थ के साथ योग वह अनुयोग है अथवा सूत्र का अपने अर्थ के सम्बन्ध में जो अनुरूप या अनुकूल व्यापार हो वह अनुयोग है।255 यह अनुयोग आठ256 कहे गये हैं - ___1. सत् 2. संख्या 3. क्षेत्र 4. स्पर्शन 5. काल 6. अन्तर 7. भाव 8. अल्पबहुत्व। ____ 1. सत् - सत् का अभिप्राय सत्ता अथवा अस्तित्त्व या अवस्थिति है। यद्यपि सम्यक्त्व गुण सत्ता रूप से सभी जीवों में विद्यमान है पर उसका आविर्भाव केवल भव्य जीवों में हो सकता है, अभव्यों में नहीं।257 2. संख्या - संख्या का अभिप्राय यहाँ गिनती से है। गिनती की अपेक्षा से विचार करने पर भूतकाल में अनन्त जीवों ने सम्यक्त्व प्राप्त किया है और भविष्य में भी अनन्त जीव प्राप्त करेंगे। सम्यक्त्व की गिनती उसे पाने वाले की संख्या पर निर्भर है। इस दृष्टि से सम्यग्दर्शन संख्या में अनन्त है।258 3. क्षेत्र - सम्यग्दर्शन का क्षेत्र सम्पूर्ण लोकाकाश नहीं है किन्तु उसका असंख्यातवाँ भाग है। चाहे सम्यग्दर्शनी एक जीव को लेकर या अनन्त जीवों को लेकर विचार किया जाये तो भी सामान्यरूप से सम्यग्दर्शन का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है।259 4. स्पर्शन - सम्यग्दर्शन का स्पर्शन-क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है अर्थात् निवास स्थान रूप आकार के चारों ओर के प्रदेशों को छूना स्पर्शन है। क्षेत्र में सिर्फ आधारभूत आकाश ही लिया जाता है और स्पर्शन में आधार क्षेत्र के चारों तरफ के आकाश प्रदेश जो आधेय के द्वारा स्पर्शन किया गया हो वे भी लिया जाता है।260
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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