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आदिपुराण में तत्त्व विमर्श व जीव तत्त्व विषयक विचारधारायें
13. संज्ञी
मन के सद्भाव के कारण जिन जीवों में शिक्षा ग्रहण करने व विशेष प्रकार से विचार, तर्क आदि करने की शक्ति है, वे संज्ञी कहलाते हैं, यद्यपि चींटी आदि क्षुद्र जन्तुओं में भी इष्ट पदार्थ की प्राप्ति प्रतिगमन और अनिष्ट पदार्थों से हटने की बुद्धि देखी जाती है पर उपरोक्त लक्षण के अभाव में वे संज्ञी नहीं कहे जा सकते | 248
जीव संज्ञी दो प्रकार के होते है 249_
(क) संज्ञी (ख) असंज्ञी |
(क) संज्ञी
जो जीव मनः पर्याप्ति वाले होते हैं वे संज्ञी कहलाते हैं। (ख) असंज्ञी जिन जीवों को द्रव्य मन की प्राप्ति नहीं हुई है, वे असंज्ञी कहे जाते हैं । 250
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14. आहारक
शरीर नामकर्म के उदय से शरीर, वचन और द्रव्य मनोरूप बनने योग्य नोकर्म वर्गणा का जो ग्रहण होता है, उसे आहार कहते हैं। ओज-आहार, लोमआहार, कवलाहार आदि में से किसी न किसी आहार को ग्रहण करना आहारकत्व है। 251
आहारक के दो प्रकार होते हैं
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(क) आहारक (ख) अनाहारक
(क) आहारक जो जीव समय-समय में आहार ग्रहण कर रहे हैं, वे आहारक हैं।
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(ख) अनाहारक जो जीव विग्रह - गति से भवान्तर में जाते हुए, एक मोड़ या दो मोड़ करते हैं, वे एक या दो समय तक अनाहारक कहलाते हैं। जो जीव त्रसनाड़ी से मरकर पुनः त्रसनाड़ी में ही उत्पन्न होते हैं। वे एक या दो समय अनाहारक रहते हैं, किन्तु लोकनाड़ी में प्रविष्ट हुए एकेन्द्रिय जीवों की अनाहारक अवस्था तीन समय की ही होती है। तेरहवें गुणस्थान में समुद्घात के समय केवली तीन समय तक अनाहारक ही होती है। तेरहवें गुणस्थान में समुद्घात के समय केवली तीन समय तक अनाहारक रहते हैं। 252 चौदहवें गुणस्थान में तथा सिद्ध अवस्था में भी जीव अनाहारक होते हैं।