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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
आज्ञापूर्वक या अधिगमन पूर्वक ( प्रमाण-नय- निक्षेप द्वारा) श्रद्धा करना सम्यक्त्व है। अथवा मोक्ष के अविरोधी आत्मा के परिणाम को सम्यक्त्व कहते हैं। जीवादि तत्त्वभूत पदार्थों को वीतरागदेव ने जैसा कथन किया है, उसी प्रकार विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। 241 वह प्रशम, संवेग, आदि पांच लक्षणों ये युक्त है।
सम्यक्त्व छह प्रकार का होता है।
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(क) औपशमिक सम्यक्त्व (ख) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व (ग) क्षायिक सम्यक्त्व (घ) सास्वादन सम्यक्त्व (ङ) मिश्र सम्यक्त्व (च) मिथ्यात्व सम्यक्त्व । (क) औपशमिक सम्यक्त्व अनन्तानुबन्धी कषाय- चतुष्ट्य और दर्शनमोह त्रिक इन सात प्रकृतियों के उपशम से प्राप्त होने वाले तत्त्व रुचि रूप आत्मपरिणाम को औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं, 242 और जिसकी आत्मा अनादिकाल से मिथ्यात्व से दूषित है वह पहले आत्मशुद्धि कर यह सम्यक्त्व प्राप्त करता है। 243
(ख) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क और मिथ्यात्व मोहनीय तथा सम्यग् - मिथ्यात्म- मोहनीय; इन छह प्रकृतियों के उदय-भावी क्षय और इन्हीं के सदवस्था रूप उपशम से तथा देशघाती - स्पर्द्धक वाली सम्यक्त्व - प्रकृति के उदय में जो तत्त्वार्थ- श्रद्धान रूप आत्मपरिणाम होता है, वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है। इसे वेदक - सम्यक्त्व भी कहते हैं। 244
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(ग) क्षायिक सम्यक्त्व अनन्तानुबन्धी- चतुष्क और दर्शन मोहनीयत्रिक, इन सात प्रकृतियों के क्षय से आत्मा में जो तत्त्वरुचि रूप परिणाम प्रगट होता है, वह क्षायिक सम्यक्त्व है। 245
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(घ) सास्वादन सम्यक्त्व औपशमिक सम्यक्त्व का त्यागकर मिथ्यात्व के अभिमुख होने के समय जीव का जो परिणाम होता है, उसे सास्वादन सम्यक्त्व कहते हैं इस सम्यक्त्व के दौरान जीव के परिणाम निर्मल नहीं रहते, क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषायों का उदय रहता है। 246
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(च) मिथ्यात्व सम्यक्त्व मिथ्यात्व - मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला आत्मपरिणाम मिथ्यात्व है। इस परिणाम वाला जीव तत्त्वार्थ के प्रति श्रद्धान नहीं कर पाता। वह जड़-चेतन के भेद को भी नहीं जानता, मूढ़दृष्टि होता है, उसकी प्रवृत्ति आत्मोन्मुखी नहीं होती । हठाग्रह, कदाग्रह, पूर्वाग्रह आदि दोष इसी के फल है। 247