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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण (छ) श्रुत-अज्ञान - मिथ्यादर्शन के उदय से सहचरित श्रुतज्ञान को अज्ञान कहते हैं। जैसे-चौर्यशास्त्र, कामशास्त्र, हिंसादि आपत्तिजनक पापकर्मों के विधायक या निर्देशक-प्रेरक तथा अयथार्थ तत्त्व-प्रतिपादक ग्रन्थ कुश्रुत कहलाते हैं, उनका ज्ञान-श्रुत-अज्ञान कहलाता है।
(ज) अवधि-अज्ञान (विभंगज्ञान) - रूपी पदार्थों के मर्यादित द्रव्यादिरूप से जानने वाले अवधिज्ञान को मिथ्यात्व के उदय से विपरीत रूप में जानना अवधि-अज्ञान या विभंगज्ञान है।
सम्यग्दृष्टि के ज्ञान को ज्ञान कहते हैं, क्योंकि वह प्रत्येक वस्तु को अनेकान्तदृष्टि से देखता है, उसका ज्ञान हेय-ज्ञेय-उपादेय की बुद्धि से युक्त होता है, किन्तु मिथ्यादृष्टि का ज्ञान व्यवहार में समीचीन होने पर भी वस्तु को एकान्त दृष्टि से जानने वाला, कदाग्रही तथा हेयोपादेय-विवेकरहित होता है। मन:पर्याय और केवल, ये दो ज्ञान सम्यक्त्व के सद्भाव में ही होते हैं, अतएव ये दोनों अज्ञानरूप नहीं होते।
मतिज्ञान आदि आठ प्रकार के ज्ञान साकार कहलाते हैं, क्योंकि वे वस्तु के प्रतिनियत आकार विशेष को ग्रहण करते हैं।203
8. संयम
अंहिसा, अचौर्य, सत्य, शील, अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों का धारण करना पाँच समितियों का पालन (ईर्या भाषा आदि) क्रोधादि चार कषायोंका निग्रह करना, मन, वचन, काया रूप दण्ड का त्याग पाँच इन्द्रियों (श्रोत, चक्षु) आदि पर विजय पान संयम कहलाता है।
सावद्य योगों से निवृत्ति अथवा जिसके द्वारा पाप व्यापार रूप आरम्भसमारम्भों से आत्मा नियंत्रित किया जाए उसे संयम कहते हैं।204 संयम सात प्रकार का होता है -
(क) सामायिक संयम (ख) छेदोपस्थापनीय संयम (ग) परिहार विशुद्धि संयम (घ) सूक्ष्म सम्पराय संयम (ङ) यथाख्यात संयम (च) देशविरति संयम (छ) अविरति संयम205
(क) सामायिक संयम - रागद्वेष के अभाव को समभाव कहते हैं, और जिस संयम (चारित्र साधना) से समभाव की प्राप्ति हो, वह सामायिक
संयम है।206
मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यव चार ज्ञान के धारी केवल सामायिक चारित्र धारण करते हैं।207