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आदिपुराण में तत्त्व विमर्श व जीव तत्त्व विषयक विचारधारायें
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सामायिक संयम के दो प्रकार हैं - (1) इत्वर सामायिक (2) यावत्कथित
(1) इत्वर सामायिक - इत्वर सामायिक वह है, जो अभ्यासार्थी (नवदीक्षित) शिष्यों को स्थिरता प्राप्त करने के लिये पहले पहल दिया जाता है।208
(2) यावत्कथित - यावत्कथित-सामायिक संयम वह है जो ग्रहण करके जीवनपर्यन्त पाला जाता है।209
(ख) छेदोपस्थापनीय संयम - पूर्व संयम पर्याय का छेद कर फिर से उपस्थापन (व्रतारोपण) करना पहले जितने समय तक संयम का पालन किया हो, उतने समय को व्यवहार में न गिनना और दुबारा (नये सिरे से) संयम ग्रहण करने के समय से दीक्षाकाल गिनना व छोटे-बड़े का व्यवहार करना - छेदोपस्थापनीय संयम है।210
यह संयम भरत और ऐरावत क्षेत्रों में प्रथम और चरम तीर्थंकरों के तीर्थ में ही होता है शेष बाईस तीर्थंकरों और महाविदेह क्षेत्र में विचरने वाले तीर्थंकरों के तीर्थ में यह संयम नहीं पाया जाता।211
(ग) परिहारविशुद्धि संयम - यदि किसी संयमी साधक द्वारा कोई संयम-विरुद्ध कार्य हो जाता है तो उसके दोष की निवृत्ति के लिये जो विशेष रूप से शुद्धिकरण की प्रक्रिया अपनाई जाती है, जिसमें आपवादिक स्थिति के लिये कोई स्थान नहीं रह जाता है वह परिहार विशुद्धि-संयम कहलाता है।
यह कल्पस्थिति इस प्रकार प्रसिद्ध है-वे नव साधु जिनका अध्ययन कम से कम नौवें पूर्व की तीसरी वस्तुपर्यन्त हों, जो दीक्षा स्थविर हों, वे इस संयम को धारण कर सकते हैं। ऐसे संयमी आचार्य, उपाध्याय की शुभ आज्ञा को पाकर गच्छ से बाहर निकलकर 18 मासपर्यन्त विशेष विधि-विधान के अनुसार तप करते हैं, जैसे कि चार साधु छः मास तक तप करते हैं, चार साधु तपस्वियों की वैयावृत्य अर्थात् सेवा करते हैं और उनमें से एक वाचनाचार्य होकर ठहरता है। दूसरी बार की षाण्मासिक साधना में वैयावृत्त्य में संलग्न होते हैं। किन्तु वाचनाचार्य वही रखता है जो पहले था। तीसरे छः महीने में वाचनाचार्य बनता है और सात मुनिवर वैयावृत्य करते हैं। इस प्रकार यह संयम साधना 18 महीनों में पूर्ण होती है।212