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आदिपुराण में तत्त्व विमर्श व जीव तत्त्व विषयक विचारधारायें
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(क) मतिज्ञान (ख) श्रुतज्ञान (ग) अवधिज्ञान (घ) मन:पर्यायज्ञान (ङ) केवलज्ञान (च) मति-अज्ञान (छ) श्रुत-अज्ञान (ज) विभङ्गज्ञान 97
(क) मतिज्ञान - इन्द्रियों और मन के द्वारा यथायोग्यस्थान में अवस्थित वस्तु के होने वाले ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान प्रायः वर्तमानकालिक विषयों को जानता है। किसी भी स्थान पर विद्यमान वस्तु को इन्द्रिय और मन की सहायता से जानने वाला ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है।।98
(ख) श्रुतज्ञान - सुनकर प्राप्त होने वाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। जो ज्ञान श्रुतानुसारी होता है, या जिसमें शब्द और उसके अर्थ का सम्बन्ध भासित होता है, और जो मतिज्ञानपूर्वक इन्द्रिय और मन के निमित्त से होता है, वह श्रुतज्ञान है। जैसे-जल शब्द सुनकर, यह जानना कि यह शब्द "पानी" का बोधक है।199
(ग) अवधिज्ञान - अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से होने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है। इसमें इन्द्रियों और मन की सहायता अपेक्षित नहीं होती। वह मूर्त एवं रूपी पदार्थों का प्रत्यक्ष अपने क्षयोपशम प्रमाण से कर सकता है, अमूर्तों का नहीं। इस ज्ञान की प्राप्ति चारों गतियों के जीवों को हो सकती है।200
(घ) मनःपर्यवज्ञान - इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना, अढ़ाई द्वीप की मर्यादा को लिए हुए संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को, दूर रहते हुए भी जान लेना मनःपर्यवज्ञान है। यह ज्ञान लब्धिधारी अप्रमत्त संयत में उत्पन्न होता है। इसका उद्भव सातवें गुणस्थान में हो सकता है उससे पूर्व नहीं। अन्य जीवों को यह ज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता।201
(ङ) केवलज्ञान - संपूर्ण, निरावरण लोक-अलोक-प्रकाशी बिना किसी रुकावट के दूर-समीप, सूक्ष्म-स्थूल, रूपी-अरूपी सभी पदार्थों को हस्तामलक की तरह जानने के लिये समर्थ ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान सादि अनन्त है, इस ज्ञान को पाकर ही जीव परमपद को प्राप्त कर सकता है। यह ज्ञान अप्रमत्त संयत को ही होता है। क्षीणमोहनीय-गुणस्थान में चार घाति कर्मों को सर्वथा क्षय करके तेरहवें गुणस्थान के पहले समय में ही जीव केवलज्ञान से प्रकाशित हो उठता है।202
(च) मति-अज्ञान - मिथ्यात्व के उदय से तथा इन्द्रिय मन से होने वाले विपरीत उपयोग को मति-अज्ञान कहते हैं।