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________________ 68 जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण (ग) तेजस्कायिक - अग्नि ही जिनका शरीर है वे तेजस् कायिक हैं। अग्नि और विद्युत इनका समावेश तेजस में हो जाता है। 76 (घ) वायुकायिक - वायु ही जिन जीवों का शरीर है वे वायुकायिक कहलाते हैं। आगमों में वायु को सचित्त ही माना है। वायु के जीव को देखना चक्षु का विषय नहीं है तो भी चैतन्य रूप है। 77 (ङ) वनस्पतिकायिक - जिस प्रकार जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त मनुष्य की दशा देखी जाती है। ठीक उसी प्रकार वनस्पति की हानि एवं वृद्धि देखी जाती है। वृद्धि और हानि जीव के होने पर ही हो सकती है। जड वस्तु में चय उपचय अर्थात् हानि एवं वृद्धि नहीं होती। अन्य प्राणियों की तरह वनस्पति भी नियत आयु के बल पर जीती है।।78 प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक सर जगदीश चन्द्र बोस ने वनस्पति का सजीव होना सिद्ध किया है। खेद है कि यह कार्य आगे नहीं बढ़ा, किन्तु एक समय आएगा जब विज्ञान, पृथ्वीकाय आदि की सजीवता पर भी अपनी स्वीकृति की मोहर लगाएगा। इस क्षेत्र में जैन दर्शन अब भी विज्ञान से आगे हैं।179 पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस, वायु और वनस्पति आदि ये पाँचों स्थावर जीव कहे जाते हैं। स्थावर का अभिप्राय है एक स्थान पर स्थिर रहने वाले जीव होते हैं। सभी स्थावर जीव एकेन्द्रिय होते हैं।।80 (च) त्रसकाय - त्रस का अर्थ है - एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने वाले अथवा, हिलने, डुलने, चलने वाले, गति-गमन करने वाले जीव त्रस हैं।181 द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों के त्रसनाम कर्म का उदय होता है, और वे अपने-अपने प्राप्त शरीर से स्वयं चल-फिर सकते हैं। हित में प्रवृत्ति और अहित से निवृत्तिरूप क्रिया भी कर सकते हैं। त्रसनाम कर्म के उदय से जिन जीवों के सुख-दुःख, इच्छा, द्वेष आदि स्पष्ट दिखाई देते हों, वे त्रस जीव हैं।।82 4. योग योग का अर्थ है प्रवृत्ति। मन, वचन और काय की क्रियाशीलता को ही योग कहते हैं।83 वीर्य-शक्ति के जिस परिस्पन्द से आत्मिक प्रदेशों की हलचल से आत्मा की चिन्तन, वचन, गमन, भोजन आदि क्रियाएँ होती है. वह
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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