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________________ आदिपुराण में तत्त्व विमर्श व जीव तत्त्व विषयक विचारधारायें 69 योग है। तथा शरीर, भाषा और मनोवर्गणा के पुद्गलों की सहायता से होने वाला परिस्पन्द योग कहलाता है अथवा पुद्गल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन-वचन-काय युक्त जीवों की कर्मग्रहण करने की शक्ति को योग कहते हैं।184 योग तीन प्रकार का होता है - (क) मनोयोग (ख) वचनयोग (ग) काययोग। (क) मनोयोग - इस योग में मन की (मानसिक) प्रवृत्ति है। . (ख) वचनयोग - वचन की प्रवृत्ति को वचनयोग कहा जाता है। (ग) काययोग - कायिक अथवा काय सम्बन्धी प्रवृत्ति को काय योग कहते हैं।185 जिससे इन्द्रियजन्य संयोगजन्य सुख का वेदन किया जाये अथवा वेदमोहनीय कर्म के उदय से ऐन्द्रिय-रमण करने या संभोगजन्यसुख की अभिलाषा को वेद186 कहते हैं। व्यक्ति में पाये जाने वाले स्त्रीत्व, पुरुषत्व व नपुंसकत्व के भाव वेद कहलाते हैं। ये दो प्रकार का है - भाव वेद और द्रव्य वेद। उपरोक्त भाव तो भाववेद है और शरीर में स्त्री, पुरुष व नपुंसक के अंगोपांग विशेष द्रव्यवेद है, द्रव्यवेद जन्मपर्यन्त नहीं बदलता पर भाववेद कषाय विशेष होने के कारण क्षणमात्र में बदल सकता है। 87 वेद तीन प्रकार के कहे गए हैं: (क) स्त्री वेद (ख) पुरुष वेद (ग) नपुंसक वेद।। (क) स्त्री वेद - स्त्री वेद का अभिप्राय है पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा होना। (ख) पुरुष वेद - पुरुष वेद का अभिप्राय है स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा होना। (ग) नपुंसक वेद - पुरुष और स्त्री दोनों के साथ रमण करने की इच्छा करने वाला नपुंसक वेद होता है।।88 6. कषाय जिसके द्वारा सुख-दुःख जन्म-मरण रूप संसार की प्राप्ति हो, अथवा जो
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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