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आदिपुराण में तत्त्व विमर्श व जीव तत्त्व विषयक विचारधारायें
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योग है। तथा शरीर, भाषा और मनोवर्गणा के पुद्गलों की सहायता से होने वाला परिस्पन्द योग कहलाता है अथवा पुद्गल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन-वचन-काय युक्त जीवों की कर्मग्रहण करने की शक्ति को योग कहते हैं।184
योग तीन प्रकार का होता है - (क) मनोयोग (ख) वचनयोग (ग) काययोग। (क) मनोयोग - इस योग में मन की (मानसिक) प्रवृत्ति है। . (ख) वचनयोग - वचन की प्रवृत्ति को वचनयोग कहा जाता है। (ग) काययोग - कायिक अथवा काय सम्बन्धी प्रवृत्ति को काय योग
कहते हैं।185
जिससे इन्द्रियजन्य संयोगजन्य सुख का वेदन किया जाये अथवा वेदमोहनीय कर्म के उदय से ऐन्द्रिय-रमण करने या संभोगजन्यसुख की अभिलाषा को वेद186 कहते हैं।
व्यक्ति में पाये जाने वाले स्त्रीत्व, पुरुषत्व व नपुंसकत्व के भाव वेद कहलाते हैं। ये दो प्रकार का है - भाव वेद और द्रव्य वेद। उपरोक्त भाव तो भाववेद है और शरीर में स्त्री, पुरुष व नपुंसक के अंगोपांग विशेष द्रव्यवेद है, द्रव्यवेद जन्मपर्यन्त नहीं बदलता पर भाववेद कषाय विशेष होने के कारण क्षणमात्र में बदल सकता है। 87 वेद तीन प्रकार के कहे गए हैं:
(क) स्त्री वेद (ख) पुरुष वेद (ग) नपुंसक वेद।। (क) स्त्री वेद - स्त्री वेद का अभिप्राय है पुरुष के साथ रमण करने
की इच्छा होना। (ख) पुरुष वेद - पुरुष वेद का अभिप्राय है स्त्री के साथ रमण करने
की इच्छा होना। (ग) नपुंसक वेद - पुरुष और स्त्री दोनों के साथ रमण करने की
इच्छा करने वाला नपुंसक वेद होता है।।88
6. कषाय
जिसके द्वारा सुख-दुःख जन्म-मरण रूप संसार की प्राप्ति हो, अथवा जो