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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
गतिनामकर्म के उदय से होने वाली जीव की पयार्य को अथवा चारों गतियों के गमन करने के कारण को गति कहते हैं। यह गतियाँ चार प्रकार की कही गई हैं :
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(क) नरक गति (ख) तिर्यंच गति (ग) मनुष्य गति (घ) देवगति । 157
(क) नरक गति जो द्रव्य क्षेत्र काल भाव में स्वयं तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त नहीं होते उनको नारक (नारकी) कहते हैं। 158 शरीर और इन्द्रियों के विषयों में, उत्पत्ति शयन बिहार उठने बैठने आदि के स्थान में, भोजन आदि के समय में अथवा और भी अनेक अवस्थाओं में जो स्वयं अथवा परस्पर में प्रीति (सुख) को प्राप्त न हो, उसको नारक कहते हैं। नारक जिस स्थान में रहते हैं, उसे नरक गति कहते हैं। 159
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(ख) तिर्यञ्च गति जो निकृष्ट अज्ञानी है, तिरछे गमन करते हैं, जिनके जीवन में अत्यधिक पाप की बहुलता पाई जाती है; उन्हें तिर्यंच कहते है । 160 तिर्यंचगति नामकर्म के उदय से होने वाली, जिस पर्याय से जीव तिर्यंच कहलाता है, उसे तिर्यंच गति कहते हैं । उपपाद जन्म वालों (देवों और नारकों) तथा मनुष्यों को छोड़कर शेष सब एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक तिर्यंचगति वाले
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(ग) मनुष्य गति जो नित्य ही हेय - उपादेय, तत्त्व- अतत्त्व, आप्तअनाप्त, धर्म-अधर्म आदि का विचार करें, और जो मन के द्वारा गुणदोषादि का विचार स्मरण आदि कर सकें, जो शिल्पकला आदि में भी कुशल हों, तथा युग के आदि में जो मनुओं से उत्पन्न हों, उनको मनुष्य कहते हैं। अर्थात् मनुष्य गति नामकर्म के उदय से जो ढाई द्वीप के क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले हैं उनको मनुष्य कहते हैं। 162
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(घ) देव गति जो देव गति में होने वाले या पाये जाने वाले परिणामों से सदा सुखी रहते हैं, और जो अणिमा, महिमा आदि आठ गुणों (ऋद्धियों) के द्वारा सदा अप्रतिहतरूप से विहार ( विचरण ) करते हैं और जिनका रूप लावण्य यौवन आदि सदा प्रकाशमान रहता है, उनको परमागमों में देव कहा जाता है। 163
2. इन्द्रिय पाँच
इन्द्रिय
श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, जो ज्ञान प्राप्ति में साधन हो वे इन्द्रिय हैं। आदि जिन साधनों से आत्मा को सदी-गर्मी, काले पीले तथा खट्टा-मीठा