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आदिपुराण में तत्त्व विमर्श व जीव तत्त्व विषयक विचारधारायें
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है। जैसे आग को राख से दबा दिया जाता है, थोड़ी देर बाद हवा का झोंका लगने पर वह भड़क जाती है और सन्तापादि अपना कार्य करने लगते हैं। इसी प्रकार उपशम श्रेणी वाला जीव मोह का उपशम करता है, उसे दबाता है, नष्ट नहीं करता। थोड़े समय पश्चात् मोहनीय कर्म फिर उदय में आ जाता है और वह आत्मा को आगे बढ़ने से रोकता ही नहीं वरन् नीचे गिरा देता है। ऐसा जीव ग्यारहवें गुणस्थान में जाकर उससे आगे नहीं बढ़ता।
(ख) क्षपक श्रेणी - क्षपक श्रेणी वाला जीव मोह कर्म की प्रकृतियों का क्षय करता हुआ आगे बढ़ता है, अतएव उसके पतित होने का अवसर नहीं आता। वह दसवें गुणस्थान से सीधा बारहवें गुणस्थान में जाता है और सदा के लिए अप्रतिपाती बन जाता है।।40
१. अनिवृत्ति बादर गुणस्थान141
इस गुणस्थान में शुक्ल ध्यान की परम विशुद्धावस्था होने लगती है। आठवें गुणस्थान में अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियाँ, इन पन्द्रह प्रकृतियों का उपशम श्रेणी वाले ने उपशम किया था और क्षपक श्रेणी वाले ने क्षय किया था। इसके अनन्तर जब हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन छह नोकषायों का भी उपशम या क्षय हो जाता है, तब नौवाँ गुणस्थान प्राप्त होता है। इस गुणस्थान में संज्वलन का मंद उदय बना रहता है।
एक अन्तर्मुहूर्त में जितने समय होते हैं, नौवें गुणस्थान में अध्वसाय स्थान भी उतने ही हैं। यहाँ एक समयवर्ती नाना जीवों के परिणामों में पाई जाने वाली विशुद्धि में परस्पर भेद नहीं पाया जाता। अतएव इन परिणामों को अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहा जाता है। 42 10. सूक्ष्मसम्पराय143 गुणस्थान
मोहनीय कर्म का उपशम अथवा क्षय होते होते जब सम्पूर्ण (क्रोध, मान, माया, लोभ, कषाय रूप) मोहनीय कर्म उपशान्त अथवा क्षीण हो जाते हैं और सिर्फ एकमात्र लोभ का सूक्ष्म अंश अवशिष्ट रहता है, तब वह सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान कहलाता है।।44 11. उपशान्त मोहनीय गुणस्थान
इसमें कषाय सम्पूर्ण रूप से उपशान्त हो जाते हैं किन्तु सत्ता में रहते हैं, उदय में नहीं आते। इससे जीव आगे नहीं बढ़ सकता। उसका निश्चित रूप से पतन होता है। पतन दो प्रकार से होता है --