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आदिपुराण में तत्त्व विमर्श व जीव तत्त्व विषयक विचारधारायें
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जीव अविरत सम्यग्दृष्टि है।।29A इस चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दर्शन के साथ संयम बिल्कुल नहीं रहता क्योंकि यहाँ पर दूसरी अप्रत्याख्यावरण कषाय का उदय रहता है। इसीलिए इस गुणस्थान वाले जीव को असंयत सम्यग्दृष्टि भी कहते हैं।130
5. देशविरति गुणस्थान
सम्यग्दृष्टिपूर्वक गृहस्थ धर्म के व्रतों का यथायोग्य पालन करना “देश विरति" है। देश विरति शब्द का अर्थ है सर्वथा नहीं किन्तु देशतः अर्थात् अंशत: निश्चित रूप से पाप योग से विरत होना। देशविरति अर्थात् मर्यादित विरति। इस गुणस्थान वाला श्रावक व्रतों का पालन करता है। प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय के कारण जो जीव पाप जनक क्रियाओं से सर्वथा तो नहीं किन्तु अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय न होने के कारण आंशिक रूप से पापकारी क्रियाओं से अलग हो सकते हैं वे देश विरत कहलाते हैं। इनका स्वरूप विशेष देशविरत गुणस्थान है।131B
6. प्रमत्त संयत गुणस्थान132
यह गुणस्थान सिर्फ मनुष्यों को ही होता है। आगे के शेष सभी गुणस्थान केवल मनुष्यों में ही होते हैं। छठे गुणस्थान में मनुष्य सम्पूर्ण पाप क्रियाओं को छोड़ देता है। पाँचों पापों प्राणातिपात, भृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, पाँचों ज्ञान इन्द्रियों के विषयों से विरत हो जाता है। वह सकल संयमी साधक बन जाता है। पाँच महाव्रतधारी साधक का यही गुणस्थान है। परन्तु यहाँ सर्वविरति होने पर भी प्रमाद भाव रहता है।133 कभी-कभी कर्त्तव्य, कार्य में आलस्य होना प्रमाद है। परन्तु जिस प्रकार उचित समय में उचित भोजन ग्रहण करना प्रमाद नहीं, उसी प्रकार कषाय यदि मन्द हो तो उसकी गणना प्रमाद में नहीं की जाती। कषाय जब तीव्र रूप धारण करें, तभी उन्हें प्रमाद रूप में गिना जाना चाहिए। कषायोदय सातवें गुणस्थान से उत्तरोत्तर मन्द ही होता जाता है। इसलिए वह प्रमाद नहीं कहा जाता है।।34
7. अप्रमत्त संयत गुणस्थान
जो संयत (मुनि) विकथा, कषाय आदि प्रमादों को नहीं सेवन करते हैं वहीं अप्रमत्त दशा को प्राप्त होते हैं। छठे गुणस्थान में आत्मा को जो शान्ति और निराकुलता का अनुभव होता था उसमें प्रमाद बाधा पहुँचा देता था। आत्मा जब इस प्रमाद रूप बाधा को भी दूर कर देता है और आत्मिक स्वरूप की