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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
मिथ्या प्रभाव के कारण मिथ्या दर्शन को ही सम्यग्दर्शन मानता है। मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से जिस जीव की दृष्टि (श्रद्धा) मिथ्या (विपरीत) हो जाती है उसे मिथ्यादृष्टि कहते हैं। जैसे धतूरे के बीज को खाने वाला मनुष्य सफेद वस्तु को भी पीली देखता है, वैसे ही मिथ्यात्वी मनुष्य की दृष्टि भी विपरीत हो जाती है, अर्थात् कुदेव को देव, कुगुरु को गुरु और कुधर्म को धर्म समझता है । 1 26A इनमें मुक्ति प्राप्त करने की योग्यता रहती है। जिस प्रकार पित्त ज्वर से ग्रसित जीव को मीठा रस भी अच्छा नहीं लगता उसी प्रकार मिथ्यात्वी को यथार्थ धर्म रुचिकर नहीं होता । | 27
2. सास्वादन गुणस्थान
इस गुणस्थान में जीव को यथार्थ दर्शन का मात्र आस्वादन होता है। उसका चित्त सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के बीच आन्दोलन होता रहता है। जिस प्रकार पर्वत से गिरने पर और भूमि पर पहुँचने से पहले मध्य का जो काल है, वह न पर्वत पर ठहरने का काल है और न भूमि पर ठहरने का है, किन्तु अनुभयकाल है इसी प्रकार जिसने सम्यक्त्व का नाश कर दिया है, पर मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं किया है, उसको सास्वादन गुणस्थानवर्ती जीव कहते हैं। जिस प्रकार कोई व्यक्ति खीर खाकर वमन करे तो उसके मुँह में खी का स्वाद आता है, इसी प्रकार जीव को सम्यक्त्व का स्वाद रहता है। इस दृष्टि से इस गुणस्थान को सास्वादन गुणस्थान कहते हैं | 128
3. मिश्र गुणस्थान
सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व इन दोनों के मिश्रण रूप आत्मा के विचित्र अध्वसाय का नाम मिश्र गुणस्थान है। दही व गुड़ के मिश्रित स्वाद के समान सम्यक् व मिथ्या रूप मिश्रित श्रद्धान व ज्ञान को धारण करने की अवस्था विशेष सम्यग्मिथ्यात्व या मिश्र गुणस्थान कहलाता है। सम्यकत्व से गिरते समय अथवा मिथ्यात्व से चढ़ते समय अन्तर्मुहूर्त के लिये इस अवस्था का वेदन होना सम्भव है। इस गुणस्थान में आयु कर्म का बन्ध नहीं होता और न मृत्यु होती है । 129
4. अविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान
हिंसादि सावद्य व्यापारों को छोड़ देने, अर्थात् पापकारी क्रियाओं से अलग हो जाने को विरति कहते हैं। चारित्र, व्रत विरति के ही नाम है जो सम्यग्दृष्टि होकर भी किसी प्रकार के व्रत को धारण नहीं कर सकता, वह