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________________ वर्धमानचरितम् क्षणमात्रमथोपविश्य पूर्व वणितैरेव निवेदितं शरीरैः । पुनरक्तमिवेश्वरेण पृष्टो निजगावागमनस्य कारणं सः ॥५६ नरनाथपतेरनुज्ञयास्मानवमत्योपवनं विशाखनन्दी। विशति स्म भवत्प्रतापयोग्यं तदपि भोष्यसि यत्कृतं च रक्षः ॥५७ इति तेन निवेदितां विदित्वा वनवार्ता कुपितोऽपि विश्वनन्दी। अवधीरयति स्म धीरचित्तः कथया तामथ लीलयान्येयैव ॥५८ महतीमथ तस्य कारयित्वा सहसा स्नानपुरस्सरां सपर्याम् । विबभावाधिपः स च प्रसादं पूनरासाद्य नमस्ययावनम्रः॥५९ अथ तेन नयः प्रतापशक्त्या परया च प्रवणीकृतः सपत्नः। प्रणिपत्य करं वितीर्य सारं विनिवत्यापि तदाज्ञया जगाम ॥६० निरवर्तत वेगतो युवेशः सफलीकृत्य ततस्तदा तदाज्ञाम् । स्वपुरं प्रतिपूज्य राजलोकं विसृजनप्रतिमः प्रतिप्रयाणम् ॥६१ अवलोकयति स्म स स्वदेशं तरसा प्राप्य पलायमानलोकम् । किमिदं कथयेति तेन पृष्टो निजगादेत्यनिरुद्धनामधेयः ॥६२ साथ स्नेह करनेवाले तथा सिंहासन पर बैठे हुए अपने स्वामी के समीप जाकर उन्हें पृथिवी पर झुके शिर से प्रणाम किया और प्रणाम के पश्चात् वह उनकी प्रेमपूर्ण दृष्टि द्वारा प्रदत्त स्थान पर बैठ गया ।। ५५ ।। तदनन्तर क्षणभर बैठकर स्वामी द्वारा पूछे गये वनरक्षक ने अपने आने का कारण कहा सो उसका वह कहना पुनरुक्त के समान हुआ, क्योंकि घावों से युक्त शरीर के द्वारा वह कारण पहले ही कह दिया गया था । ५६ ।। उसने कहा कि राजा की आज्ञा से हम सबको तिरस्कृत कर विशाखनन्दी उपवन में प्रविष्ट हो चुका है। इस संदर्भ में रक्षकों ने आपके प्रताप के योग्य जो कुछ कि है उसे भी सुनेगे ।। ५७ ॥ इस प्रकार वनरक्षक के द्वारा कहा हुआ वन का समाचार जान कर विश्वनन्दी यद्यपि कुपित तो हुआ तो भी धीर-वीर चित्त के धारक उसने लीलापूर्वक दूसरी कथा छेड़कर उस समाचार को उपेक्षित कर दिया ।। ५८ ॥ तदनन्तर विश्वनन्दी ने शीघ्र ही उस वनरक्षक का स्नान सहित बहुत सत्कार कराया । सेवक के इस सत्कार से राजा सुशोभित हुआ और राजा से प्रसाद को पाकर वह सेवक भी अतिशय नम्र हुआ ।। ५९॥ पश्चात् युवराज विश्वनन्दी ने नीति तथा बहुत भारी प्रताप के बल से शत्रु को अधीन किया जिससे उसने आकर युवराज को प्रणाम किया, अत्यन्त श्रेष्ठ कर प्रदान किया और उसके अनन्तर बह युवराज की आज्ञा से लौट कर वापस चला गया । ६० ।। तदनन्तर युवराज, राजा विशाखभूति की आज्ञा को सफलकर वेग से अपने देश की ओर लौटा । लौटते समय उपमारहित युवराज प्रत्येक पड़ाव पर राजाओं को सन्मानित कर बिदा करता जाता था॥ ६१ ॥ शीघ्र ही स्वदेश को प्राप्तकर उसने देखा की बहुत-से लोग भागे जा रहे हैं । यह क्या है कहो' इस प्रकार युवराज के पूछने पर अनिरुद्ध नामक किसी मनुष्य ने कहा कि हे नाथ ! विशाखनन्दी आपके वन को चारों ओर से १. अवधारयति स्म ब० । २. लीलमान्यथैव म०।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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