SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थः सर्गः यदि वेत्सि विधत्स्व तं स्वबुद्धया मतयो हि प्रति पूरुषं विभिन्नाः । ननु कृत्यविधौ प्रमाणमीशः सचिवोऽपि स्वमतं प्रवक्तुमीशः ॥४७ इति वाचमुदीर्यं मन्त्रिमुख्ये विरते मन्त्रिगणान्विस राजा । मनसा स्वयमाकलय्य किंचित्तरसाहूय युवाधिपं बभाषे ॥४८ भवता विदितो न किं प्रतीतः प्रतिकूले पथि कामरूपनाथः । मम वर्तत इत्यहं विहन्तुं द्रुतमभ्येमि तमाप्तपुत्र पश्चात् ॥४९ इति तद्वचनं निशम्य सम्यक् प्रणिपत्यैवमुवाच विश्वनन्दी | मयि तिष्ठति कस्तव प्रयासः क्षितिप प्रेषय माममुं विजेष्ये ॥५० प्रतिपक्षमनाप्य मत्प्रतापो भुजयोरेव चिरं विलीयमानः । नरनाथ न जातु वीक्षितो यः परमाविः क्रियतां त्वया स तत्र ॥५१ इति गामभिधाय सावलेपां पुनरप्यानतपूर्वकायमीशः । विससर्ज तमेव सोऽप्ययासीत्प्रविधायोपवनस्य चाभिरक्षाम् ॥५२ दिवसैरथ सम्मितैः स्वदेशं तरसातीत्य नयेन संगताभिः । पथि राजककोटिभिः परीतो रिपुदेशस्य समीपमाससाद ॥५३ प्रविशन्नथ दूरतः सभान्तं प्रतिहारेण सहान्यदा प्रतीतः । व्रणपट्टक बद्धसर्वदेहो युवराजा ददृशे वनाधिरक्षः ॥५४ प्रणनाम निवेशितेन भूम्यां शिरसा नाथमनाथवत्सलं सः । अभिसद्य च विष्टरोपविष्टं स्थितवांस्तत्प्रियदृष्टिदत्तदेशे ॥५५ ३९ अच्छा उपाय कहा जा सके ।। ४६ ।। यदि आप जानते हैं तो अपनी बुद्धि से उस उपाय को करो क्योंकि बुद्धियाँ प्रत्येक पुरुष की विभिन्न प्रकार की होती हैं । यह निश्चित है कि कार्य करने में राजा ही प्रमाण होता है मन्त्री तो अपना मत प्रकट करने में ही समर्थ होता है ।। ४७ ।। इस प्रकार के वचन कह कर जब प्रधान मन्त्री चुप हो गया तब राजा ने मन्त्रिगणों को विदाकर मन से स्वयं ही कुछ विचार किया और शीघ्र ही युवराज को बुलाकर कहा ॥ ४८ ॥ हे भले पुत्र ! यह क्या तुम्हें विदित नहीं है कि कामरूप का प्रख्यात राजा मेरे विरुद्ध मार्ग में प्रवृत्ति कर रहा है इसलिये उसे नष्ट करने के लिए मैं शीघ्र ही उसके सन्मुख जाता हूँ ॥ ४९ ॥ राजा के इस वचन को सुनकर, युवराज विश्वनन्दी ने अच्छी तरह प्रणाम कर इस प्रकार कहा कि हे राजन् ! मेरे रहते हुए आपका प्रयास क्या है ? आप मुझे भेजिये, मैं इसे जीतूंगा ।। ५० ।। मेरा प्रताप शत्रु को न पाकर चिरकाल से भुजाओं में ही विलीन होता आ रहा है । हे राजन् ! आपने उसे कभी देखा भी नहीं है अब उसे कामरूप के राजा पर अच्छी तरह प्रकट होने दिया जाय ।। ५१ ।। इस प्रकार के गर्वपूर्ण वचन कह विश्वनन्दी ने फिर से राजा को शिर झुका कर प्रणाम किया । फलस्वरूप राजा ने उसे ही विदा किया और वह भी उपवन की रक्षा कर कामरूप गया ।। ५२ ।। तदनन्तर कुछ ही दिनों में वेग से अपने देश को लाँघ कर वह शत्रु देश के समीप जा पहुँचा । मार्ग में वह नीतिपूर्वक मिले हुए अनेक राजाओं के दलों से संयुक्त होता जाता था ।। ५३ ।। किसी एक दिन युवराज ने द्वारपाल के साथ सभा में प्रवेश करते हुए पूर्व परिचित वनरक्षक को दूर से देखा । वनरक्षक के समस्त शरीर पर घावों की पट्टियाँ बँधी हुई थी ॥ ५४ ॥ वनरक्षक ने अनाथों के
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy