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तृतीयः सर्गः
उत्पन्नमात्रमानन्दाद्यं नीत्वा मेरुमूर्धनि । 'स्नपयाञ्चक्रिरेदेवाः शक्राद्याः क्षीरवारिभिः ॥५३ मतिश्रुतावधिज्ञानैः सहोत्पन्नैयंतः स्वयंम् । व्यबुद्ध सिद्धिसन्मागं यः स्वयंभूरभूत्ततः ॥५४ षट्कर्मजीवनोपायैः सन्नियुज्याकुलाः प्रजाः । येन कल्पद्रुमापाये कल्पवृक्षायितं पुनः ॥५५ आसीत्तस्यात्मजो नाम्ना भरतो भारतावनेः । पाता चक्रभृतामाद्यः प्राज्य साम्राज्यराजितः ॥५६ चतुर्दशमहारत्नसंपत्संपादितोन्नतेः । आसन्यस्थालये नित्यं निधयो नवकिङ्कराः ॥५७ यस्य दिग्विजये भूरिसेनाभरनिपीडनम् । असहन्ती धरा रेणुव्याजेने वारुरोह खम् ॥५८ रेजिरे तच्च मूचारुनारोभिरवतंसिता । वेलावनलतालीनां भङ्गं प्राप्यापि पल्लवाः ॥५९ अम्भोराशिः करानिन्दोः पीत्वा पुनरिवोद्गिरन् । ददृशे सैनिकैर्यस्य तीरस्यैः फेनराशिभिः ॥ ६० यस्यालब्धरणारम्भा वारिधौ वारिकुञ्जरैः । प्रत्युत्थितैर्मदामर्षात् क्रुधा युध्यन्ति दन्तिनः ॥ ६१ यः शशास स्फुरच्चक्रश्रिया दक्षिणबाहुना । षट्खण्डमण्डलां धात्रीं धात्रीशामादिपुरुषः ॥६२ तस्य प्रिया महादेवी त्रिजगच्चारुतावधिः । धारिणीति क्षितौ ख्याता बभूव गुणधारिणी ॥६३ तयोर्महात्मनो रासीत्स्वर्गादेत्य सुरः सुतः । मरीचिरुदितादित्यमरीचीन् ह्रेपयन् रुचा ॥६४
पुष्पवृष्टि से आकाश हँसने लगा था ॥ ५२ ॥ उत्पन्न होते हो हर्ष से मेरु पर्वत के शिखर पर लेजाकर इन्द्र आदि देवों ने जिनका क्षेोरसागर के जल से अभिषेक किया था ।। ५३ ।। जिस कारण वे साथ ही उत्पन्न हुए मति, श्रुत और अवधि ज्ञान के द्वारा मोक्षमार्ग को स्वयं जानते थे उस कारण स्वयंभू थे ।। ५४ । उन्होंने कल्पवृक्षों के नष्ट होने पर व्याकुल प्रजा को असि, मसी, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या इन षट्कर्मरूप जीविका के उपायों से युक्त किया था इसलिये वे कल्पवृक्ष के समान जान पड़ते थे ।। ५५ ।। उस भगवान् वृषभदेव का भरत नाम का पुत्र था जो भरतक्षेत्र की समस्त वसुधा का रक्षक था, प्रथम चक्रवर्ती था और बहुत बड़े साम्राज्य से सुशोभित था ।। ५६ ।। चौदह महारत्नरूप संपत्ति के द्वारा उन्नति को प्राप्त करनेवाले जिस भरत के घर में निरन्तर नौ निधियाँ विद्यमान रहती थीं जो कि नौ किंकरों के समान जान पड़ती थीं ।। ५७ ॥ दिग्विजय के समय जिसकी बहुत भारी सेना के समूह के द्वारा की हुई अत्यधिक पीड़ा को नहीं सहती हुई पृथिवी धूलि के बहाने ही मानों आकाश में जा चढ़ी थी ।। ५८ ।। उसकी सेनासम्बन्धी सुन्दर स्त्रियों के द्वारा कर्णाभरण रूप से धारण किये हुए तटवन की लतासमूह के पल्लव भङ्ग को प्राप्त होकर भी सुशोभित हो रहे थे ।। ५९ ।। तीर पर ठहरे हुए जिसके सैनिक, फेनसमूह से युक्त समुद्र को ऐसा देख रहे थे मानों चन्द्रमा की किरणों का पान कर वह उन्हें ही पुन: उगल रहा हो ।। ६० ।। युद्ध का अवसर नहीं प्राप्त करनेवाले जिसके हाथो, समुद्र में प्रतिकूल खड़े हुए जलज के साथ मदसम्बन्धी असहनशीलता के कारण क्रोधवश युद्ध करते थे ।। ६१ ।। जो चक्रवर्तियों में प्रथम चक्रवर्ती था और देदीप्यमान चक्ररत्न से सुशोभित दाहिनी भुजा से षट्खण्ड पृथिवी का शासन करता था ।। ६२ ।। उस भरत की धारिणी इस नाम से पृथिवी परप्रसिद्ध, गुणों को धारण करनेप्रिय रानी थी जो सुन्दरता के विषय में ऐसी जान पड़ती थी मानों तीनों जगत् की सुन्दरता की सीमा ही ।। ६३ ।। पुरूरवा भील का जीव देव, स्वर्ग से आकर उन दोनों महात्माओं के मरीचि नाम का पुत्र हुआ । वह मरीचि अपनी कान्ति से उदित सूर्य की किरणों को लज्जित करता
१. स्नापयांचक्रिरे म० । २. संपादितोन्नतैः म० । ३. यं म० ।