SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ वर्धमानचरितम् अतिदूरं समं गत्वा तेन प्रगुणवर्त्मनि । दस्युना योजितो भक्त्या ययौ यातिरवाकुलम् ॥४० अहिंसादीनि संरक्ष्य व्रतानि स चिरान्मृतः । सौधर्मे द्विसमुद्रायुरासीद्देवः पुरूरवाः ॥४१ अणिमादिगुणोपेतस्तत्र दिव्यं सुखामृतम् । पीत्वाप्यवातरन्नाकात्पूर्वपुण्यक्षयात्ततः ॥४२ भारतेऽस्मिन्पुरी ख्याता विनीतास्ति पुरां पतिः । स्वर्गसारमिवोच्चित्य स्वयं शक्रेण कल्पिता । ४३ रत्नसालप्रभाजालैनिरुद्धतिभिरागमा । व्यर्थोदयं हसन्तीव या निशासु निशाकरम् ॥४४ हर्म्याग्रशिखराद्धस्फुरन्नीलरुचां चयैः । आच्छाद्यते ससस्त्रांशुर्यत्र नीलघनैरिव ॥४५ निश्वाससौरभाकृष्ट वक्त्राम्भौजेषु योषिताम् । यूनां यत्रेक्षणैः सार्द्धं निपतन्ति मदालिनः ॥४६ यत्र च प्रतिमायात रमणीलोललोचनाः । नीलोत्पलसरः कान्ति वहन्ति मणिभूमयः ॥४६ सौधगोपानसीलग्नपद्मरागांशुमण्डलैः । यत्राकालिकसंध्याभ्रविभ्रमो दिवि तन्यते ॥४८ यस्यां मरकतच्छायाच्छादिता हर्म्यमूर्धसु । मयूराव्यक्तिमायान्ति परं केकरवैः कलैः ॥४९ श्रीमांस्तीर्थं कृतामाद्यः सार्वः सर्वगुणास्पदम् । वृषभो वृषसंपन्नो नगरी मैध्युवास ताम् ॥५० यस्य गर्भावतारे भूरिन्द्राद्यैनिचितामरैः । बभार सकलां लक्ष्मीं स्वर्गलोकस्य तत्क्षणम् ॥५१ दिव्यदुन्दुभयो नेदुः प्रणनर्वाप्सरोगणः । यस्मिन् जाते जहास द्यौः पतत्कुसुमवृष्टिभिः ॥५२ सभी शान्त होते हैं ॥ ३९ ॥ भक्तिवश बहुत दूर तक साथ जाकर उस भील ने मुनिराज सीधे मार्ग पर लगा दिया जिससे वे किसी आकुलता के विना इष्ट स्थान पर चले गये ॥ ४० ॥ तदनन्तर वह पुरूरवा भील, चिरकाल तक अहिंसा आदि व्रतों की रक्षा कर मरण को प्राप्त हुआ और मरकर सौधर्म स्वर्ग में दो सागर की आयु वाला देव हुआ ॥ ४१ ॥ वहाँ अणिमा आदि गुणों से युक्त हो स्वर्गसम्बन्धी सुखरूपी अमृत का पान करता रहा । पश्चात् पूर्वपुण्य का क्षय होने के कारण उस स्वर्ग से अवतीर्ण हुआ ।। ४२ ।। इस भरत क्षेत्र में एक विनीता नाम की प्रसिद्ध तथा समस्त नगरियों में श्रेष्ठ नगरी है । वह नगरी ऐसी जान पड़ती है मानों स्वर्ग के सार को लेकर स्वयं इन्द्र के द्वारा निर्मित हुई हो ॥ ४३ ॥ रत्नमय कोट की प्रभाओं के समूह से जिसमें अन्धकार का आगमन रुक गया था ऐसी वह नगरी रात्रि के समय व्यर्थ उदित चन्द्रमा की मानों हँसी ही करती रहती थी ।। ४४ ।। जिस नगरी में महलों की अग्रिम शिखरों में संलग्न चमकदार नीलमणियों की किरणों के समूह से सूर्य ऐसा आच्छादित होता है मानों नील मेघों से ही आच्छादित हो ।। ४५ ।। जहाँ स्त्रियों के मुखकमलों पर उनके श्वासोच्छ्वास की सुगन्ध से आकृष्ट हुए भौंरे युवाओं के नेत्रों के साथ निरन्तर पड़ते रहते हैं ।। ४६ ।। जिनमें स्त्रियों के चञ्चल नेत्रों का प्रतिबिम्ब पड़ रहा है। ऐसी मणिमय भूमियाँ जिस नगरी में नीलकमलों के सरोवर की कान्ति को धारण करती हैं ॥ ४७ ॥ जहाँ महलों की छपरियों में संलग्न पद्मराग मणियों की किरणों के समूह द्वारा आकाश में असमय में प्रकट हुए संध्याकालीन मेघों का भ्रम विस्तृत किया जाता है ॥ ४८ ॥ जहाँ महलों के अग्रभाग पर मरकत मणियों की छाया में छिपे हुए मयूर अपनी मनोहर केकावाणी से ही प्रकटता को प्राप्त होते हैं ।। ४९ ।। सर्वहितकारी, समस्त गुणों के स्थान, धर्म से संपन्न, प्रथम तीर्थंकर भगवान् श्री वृषभनाथ उस नगरी में निवास करते थे ।। ५० ।। जिनका गर्भावतार होने पर इन्द्र आदि समस्त देवों से व्याप्त भूमि उस समय स्वर्गलोक की समस्त शोभा को धारण करती थी ।। ५१ ।। जिनके उत्पन्न होते हो दिव्य दुन्दुभियाँ बजने लगी थीं, अप्सराओं के समूह ने नृत्य किया था, तथा हो रही १. शिखरोन्नद्ध ब० । २. मूर्द्धनि ब० । ३. नगरीं सोऽध्युवास ब० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy