SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५ द्वितीयः सर्गः इदं च पुंसां भवकोटिदुर्लभं नृजन्म जन्माम्बुनिधौ निमज्जताम्। सुदुर्लभा देशकुलादयस्तथा भवन्ति तेभ्यो धिषणा हितैषिणी ॥१४ अनादिमिथ्यात्वगदातुरात्मने हितापि सदृष्टिसुधा न रोचते । अनाप्ततत्त्वैकरुचिः स केवलं कृतान्तरक्षोवदनं विगाहते ॥१५ अदूरभव्यो विषयेषु निःस्पृहो विमुच्य सर्वं द्विविधं परिग्रहम् । उपात्तरत्नत्रयभूरिभूषणो जिनेन्द्रदीक्षां भजते विमुक्तये ॥१६ इतीदमात्मैकहितं सुनिश्चितं ध्र वं विजानन्नपि तृष्णया यया। खलीकृतस्तामधुना क्षिपाम्यहं समूलमुन्मूल्य लतामिव द्विपः ॥१७ इति प्रभुः प्रव्रजनाभिलाषुकस्ततोऽवतीर्योन्नतहर्म्यपृष्ठतः। सभागृहेपूर्वनिविष्टविष्टरे क्षणं निविश्यैवमुवाच नन्दनम् ॥१८ त्वमेव वत्स प्रतिपन्नवत्सलः पदे विभूतेरसि सर्वभूभुजाम् । निजानुरक्तप्रकृतिदिनश्रियो नवोदयं भास्करमन्तरेण कः ॥१९ प्रजानरागं सततं वितन्वतः समन्नति मलजनस्य कूर्वतः।। परेषु विश्वासमगच्छतः स्फुटं मयोपदेश्यं किमितस्तवापरम् ॥२० अतो निधाय त्वयि राज्यमूजितं विनिजिताराविदमन्यदुर्धरम् । तपोवनं पावनमभ्युपेत्सतस्तनूज मा गाः प्रतिकूलतां मम ॥२१ संसाररूपी सागर में डूबते हुए मनुष्यों के लिये यह मनुष्य जन्म करोड़ों जन्मों में दुर्लभ है अर्थात् अन्यपर्याय के करोड़ों जन्म धारण करने पर यह मनुष्य जन्म प्राप्त होता है। मनुष्य जन्म मिलने पर भी उत्तम देश तथा कुल आदि अत्यन्त दुर्लभ है और उनकी अपेक्षा आत्महित को चाहने वाली बुद्धि नितान्त दुर्लभ है ॥ १४ ॥ सम्यग्दर्शनरूपी सुधा यद्यपि हितकारो है तथापि वह अनादि मिथ्यात्वरूपी रोग से पीड़ित जीव के लिये रुचती नहीं है—अच्छी नहीं लगती। वह तत्त्वों की अद्वितीय श्रद्धा को प्राप्त किये बिना ही मात्र यमराजरूपी राक्षस के मुख में प्रवेश करता है ॥ १५॥ इसके विपरीत जो निकट भव्य है वह विषयों में उदासीन होता हुआ रत्नत्रयरूपी बहुत भारी आभूषणों को प्राप्त होता है और दोनों प्रकार के समस्त परिग्रह को छोड़कर मोक्षप्राप्ति के लिये जिनेन्द्र दीक्षा धारण करता है ॥ १६ ॥ 'यही एक आत्मा का सुनिश्चित हित है' ऐसा जानता हुआ भी मैं जिस तृष्णा के द्वारा दुखी किया गया अब मैं उस तृष्णा को जड़सहित उखाड़ कर उस तरह दूर फेंकता हूँ जिस तरह कि हाथी किसी लता को उखाड़ कर दूर फेंकता है ।। १७ ।। इस प्रकार दीक्षा लेने के लिये उत्सुक राजा नन्दिवर्धन उस ऊँची छत से नीचे उतर कर सभागृह में पहले से रखे हुए सिंहासन पर क्षण भर के लिये बैठ गये और बैठकर नन्दन नामक पुत्र से इस प्रकार कहने लगे ॥ १८ ॥ हे वत्स ! आश्रितजनों से स्नेह रखने वाले तुम्हीं, समस्त राजाओं की विभूति के पद पर आसीन हो सो ठीक ही है; क्योंकि नवोदित सूर्य के बिना दिवसलक्ष्मी के पद पर कौन आसीन हो सकता है ? तुम्हारी प्रजा एक तुम्हीं में अनुरक्त है ॥ १९ ॥ तुम निरन्तर प्रजा के अनुराग को विस्तृत करते हो, मन्त्री आदि मूलजनों की समुन्नति करते हो-उन्हें उत्साहित कर आगे बढ़ाते हो और शत्र ओं पर विश्वास नहीं करते हो अतः स्पष्ट है कि इससे अतिरिक्त मैं तुम्हें और क्या उपदेश दूं ॥ २०॥ जिसे दूसरे नहीं धारण कर सकते ऐसे इस विशाल राज्य को, शत्रुओं १. विगाह्यते म०। २. ततेऽ म०। ३. मभ्युप्रेक्षतः म ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy