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________________ वर्धमानचरितम् चतुःपयोराशिपयोधरश्रियं नियम्य रक्षायतरश्मिना धनम् । उपस्नुतां सन्नयवत्सलालनेहुँदोह गां रत्नपयांसि गोपकः ॥७ स पक्ष्मलाक्षं ललितभु संस्मयं स्मिताभिरामाधरपल्लवं मिथः । प्रियाननं नोपरराम वीक्षितुं मनोहरे वस्तुनि को न रज्यते ॥८ इति त्रिवर्ग मतिमानुपार्जयन् यथायथं प्राज्यसुखैकसाधनम् । अनेकसंख्याननयत्स वत्सरान्विमत्सरः साधुषु नन्दिवर्धनः ॥९ अथैकदा हर्म्यतले समुत्थिते स्थितः क्षितीशः प्रियया तया युतः। नभः पयोधेरिव फेनमण्डलं विचित्रकूट धवलाभ्रमैक्षत ॥१० सविस्मयं पश्यत एव तत्क्षणाददभ्रमभ्रं गगने व्यलीयत । वपुर्वयोजीवितरूपसंपदामनित्यतां तस्य निदर्शययेथा ॥११ अभूत्तदाभ्रस्य विनाशविभ्रमाद्विरक्तचित्तो निजराजसंसदि। क्षणाद्धरम्या तरला बहुच्छला समस्तवस्तुस्थितिरित्यवेत्य सः ॥१२ अचिन्तयच्चैवमनात्मवस्तुषु प्रसक्तिमभ्येत्युपभोगतृष्णया। दुरन्तदुःखे भवखङ्गपञ्जरे तयैव जन्तुः सततं नियम्यते ॥१३ वार्तालाप करता था सो ठीक ही है क्योंकि स्वामी स्नेह से युक्त होते ही हैं ॥ ६॥ चारों दिशाओं के चार समुद्र जिसके चार स्तनों की शोभा बढ़ा रहे थे तथा जो समीचीन नयरूपी बछड़े के दुलार से द्रवीभूत हो रही थी ऐसी पृथ्वीरूपी गाय को उसने रक्षारूपी लम्बी रस्सी से मजबूत बांधकर गोपाल की तरह उससे रत्नरूपी दूध को दुहा था ॥७॥ जिसके नेत्र सघन बिरूनियों से युक्त हैं, जिसकी भौंहें अत्यन्त सुन्दर हैं, जो गर्व से युक्त है तथा जिसका अधरोष्टरूपी पल्लव मन्द-मन्द मुस्कान से मनोहर है ऐसे प्रिया के मुख को परस्पर देखने के लिये वह कभी विरत नहीं होता था अर्थात् सतृष्ण नेत्रों से सदा प्रिया के मुख को देखता रहता था सो ठीक ही है; क्योंकि मनोहर वस्तु में कौन राग नहीं करता है ? ॥ ८॥ इस प्रकार जो अत्यन्त बुद्धिमान् था, श्रेष्ठ सुख के प्रमुख साधनस्वरूप त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ और काम का जो यथायोग्य उपार्जन करता था तथा सत्पुरुषों में जो ईर्ष्या से रहित था ऐसे उस नन्दिवर्धन ने अनेक वर्ष व्यतीत किये ॥९॥ तदनन्तर किसी एक समय राजा अत्यन्त ऊँचे महल की छत पर उस प्रिया के साथ बैठा था वहाँ उसने आकाशरूपी समुद्र के फेनसमूह के समान नानाप्रकार के शिखरों वाला सफेद मेघ देखा ॥ १० ॥ राजा उस विशाल मेघ को आश्चर्य से देख ही रहा था कि वह उसी क्षण आकाश में विलीन हो गया। ऐसा जान पड़ता था मानों वह मेघ राजा को शरीर, आयु, सौन्दर्य और सम्पत्ति की अनित्यता बतलाता हुआ ही विलीन हुआ था॥ ११ ॥ उस समय मेघ के विनष्ट होने से वह राजा, अपनी राजसभा में विरक्तहृदय हो गया। उसने जान लिया कि समस्त वस्तुओं की स्थिति इसी मेघ के समान आधे क्षण के लिये रमणीय, चञ्चल और अनेक छलों से युक्त है ॥ १२॥ वह विचार करने लगा कि यह जीव भोगोपभोगों की तृष्णा से परपदार्थों में आसक्ति को प्राप्त होता है और उसी तृष्णा के कारण अत्यन्त दुःखदायक संसाररूप तलवारों के पिंजड़े में निरन्तर अवरुद्ध रहता है ॥ १३ ॥ १. पयोधरीभूतचतुःसमुद्रां जुगोप गोरूपधरामिवोर्वीम् ॥३॥ रघुवंश द्वि० स०। २. सस्मरं ब० । ३. अनेकसंख्यामनयन् म०। ४. समुच्छ्रिते ब०। ५. निदर्शयत्तदा ब०।।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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