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________________ वर्धमानचरितम् नापेक्षतेऽर्थापचयं न कष्टं न वृत्तभङ्ग भुवि नापशब्दम् । मूढीकृतः सन् रसिकत्ववृत्त्या कविश्व वेश्यापितमानसश्च ॥६ द्वीपेऽथ जम्बूद्रुमचारचिह्न श्रीभारतं क्षेत्रमपाच्यमस्ति। जिनेन्द्रधर्मामृत वृष्टिसेकैरजर्नेमाह्लादितभव्यसस्यम् ॥७ तत्र स्वकान्त्या विजितान्यदेशो देशोऽस्ति पूर्वोपपदेन युक्तः । दिवौकसोऽपि स्पृहयन्ति यत्र प्रसूतये स्वर्गकृतावताराः ॥८ रत्नाकरैर्यः समतीतसंख्यै रलङ कृतो दन्तिवनैश्च रम्यैः । अकृष्टपच्यान्यनवग्रहाणि क्षेत्रैश्च सस्यानि सदा वहद्भिः॥९ पुण्ड्रेक्षुवानिचितोपशल्याः कुल्याजलैः पूरितशालिवप्राः । ताम्बूलवल्लीपरिणद्धपूगद्रुमान्वितोद्यानवनैश्च रम्याः ॥१० अध्यासिता गोधनभूतिमद्भिः कुटुम्बिभिः कुम्भसहस्रधान्यैः। ग्रामाः समग्राः निगमाश्च यत्र स्वनाथचिन्तामणयो विभान्ति ॥११ जलोद्धृतावुद्यतकच्छिकानां तुलाघटीयन्त्रविकीर्णकूलाः। वहन्ति यत्रामतसारसाम्यं नीलोत्पलैर्वासितमम्बु नद्यः ॥१२ उद्यत हुआ हूँ सो ठीक ही है क्योंकि फल की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को पापकारक कार्यों की इच्छा नहीं होती है ॥५॥ रसिकत्व वृत्ति से ( पक्ष में रसिया स्वभाव से ) मूढ हुआ कवि और वेश्याओं में जिसका मन लग रहा है ऐसा पुरुष, न तो अर्थापचय-अनुकूल अर्थ की हानि ( पक्ष में धन हानि) की अपेक्षा करता है, न कष्ट की अपेक्षा करता है, न वृत्तभङ्ग-छन्दोभङ्ग (पक्ष में चरित्र भङ्ग) का ध्यान रखता है और न पृथिवी में अपशब्द-रस के प्रतिकूल शब्दों ( पक्ष में कुवाच्य शब्दों) की परवाह करता है ॥६॥ तदनन्तर जम्बूवृक्ष के सुन्दर चिह्न से युक्त जम्बूद्वीप को दक्षिण दिशा में भी भारत नाम का वह क्षेत्र ( खेत ) है जिसमें जिनेन्द्र भगवान् के धर्मामृत की सिंचाई से निरन्तर भव्य जीवरूपी धान्य लहलहाती रहती है ॥७॥ उस भरत क्षेत्र में अपनी कान्ति से अन्य देशों को जीतने वाला एक पूर्वदेश है जहाँ जन्म लेने के लिये स्वर्ग के देव भी इच्छा करते रहते हैं॥८॥ जो देश असंख्यात रत्नों की खानों, सुन्दर हस्तिवनों और सदा विना जोते ही सरलता से पकनेवाली तथा वर्षा के प्रतिबन्ध से रहित धान्यों को धारण करने वाले खेतों से सुशोभित रहता है ॥९॥ जिनके समीपवर्ती प्रदेश पौंड़ा और ईखों के वनों से व्याप्त हैं, जिनके धान्य के खेत नहरों के जल से परिपूर्ण हैं, जो पान की लताओं से लिपटे हुए सुपारी के वृक्षों से सहित बाग बगीचों से मनोहर हैं, जहाँ, गोधनरूप विभूति से युक्त तथा हजारों घड़ों में धान्य का संग्रह करने वाले गृहस्थ निवास करते हैं और और जो अपने स्वामियों के लिये चिन्तामणि के समान हैं-उनकी भोगोपभोग सम्बन्धी समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाले हैं ऐसे समस्त गांव और नगर जिस देश में सुशोभित हो रहे हैं ॥१०. ११॥ पानी के ऊपर चढ़ाने में उद्यत काछियों को घटीयन्त्रों से जिनके किनारे व्याप्त हैं ऐसी नदियां जिस देश में अमृतसार के समान-मधुर तथा नीलकमलों से सुवासित जल को धारण करती हैं १. रसक्तमाह्लादित-इत्यपि पाठः । -
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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