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________________ ॐ नमः सिद्धेभ्यः श्रीमदसगकविविरचितं वर्षमानचरितम् प्रथमः सर्गः मङ्गलाचरणम् [ उपजातिः] श्रियं त्रिलोकोतिलकायमानामात्यन्तिकी ज्ञातसमस्ततत्त्वाम् । उपागतं सन्मतिमुज्ज्वलोक्ति वन्दे जिनेन्द्र हतमोहमन्द्रम् ॥१ दत्तार्घमप्यात्महितैरनघ्यं मुक्तिश्रियो मौक्तिकहारभूतम् । रत्नत्रयं नौमि परं पवित्रं तत्त्वैकपात्रं दुरितच्छिदस्त्रम् ॥२ सुदुस्तरानादिदुरन्तदुःखग्राहावकीर्णोरुभवार्णवौघात् ।। दक्षा समुद्धर्तुमशेषभव्यान् जयत्यजय्या जिनशासनधीः ॥३ गणाधिपैरुक्तमुदारबोधैः क्व तत्पुराणं जडधीः क्व चाहम् । मनोजवैरिनिधि खगेन्द्रः पारं गतं गच्छति कि मयूरः ॥४ तथापि पुण्यास्रवहेतुभूतमित्यात्मशक्त्या चरितं प्रवक्तुम् । श्रीवर्द्धमानस्य समुद्यतोऽहं फलार्थिनां नास्ति हि दुष्करेच्छा ॥५ महावीरं महावीरं कर्मशत्रुनिपातने । वन्देऽहं चेतसा नित्यं तर्तुकामो भवार्णवम् ॥१ वर्द्धमानमहाकाव्यमसगेन विनिर्मितम् । राष्ट्रभाषानुवादेन संयुतं विदधाम्यहम् ॥२ जो तीनों लोकों में श्रेष्ठ, अविनाशी, सर्वज्ञत्वलक्ष्मी को प्राप्त थे, जिनके वचन निर्दोषपूर्वापर विरोध से रहित थे तथा जिन्होंने "मोहरूपी तन्द्रा को नष्ट कर दिया था उन सन्मति जिनेन्द्र'"कथानायक श्री महावीर भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १॥ जो "आत्महित के इच्छुक मनुष्यों के द्वारा अर्घ्य दिये जाने पर भी अर्घ्य से रहित है ( पक्ष में सुपूजित होने पर भी अमूल्य है ) मुक्तिरूपी "लक्ष्मी का हार स्वरूप है, परम पवित्र है, तथा तत्त्वों का अद्वितीय आधार है ऐसे रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-रूपी पापापहारी अस्त्र की मैं स्तुति करता हूँ॥२॥ जो अत्यन्त दुस्तर, अनादि, दृष्टपरिणामवाले दुःखरूपी मगरमच्छों से व्याप्त "संसाररूपी विशाल सागरों के समूह से समस्त भव्य जीवों का समुद्धार करने में समर्थ है तथा जिसका जीता जाना अशक्य है ऐसी जिनवाणी रूपी लक्ष्मी जयवंत है-सर्वोत्कृष्ट रूप से विद्यमान है ॥ ३ ॥ उत्कृष्ट ज्ञान के धारक गणधरों के द्वारा कहा हुआ वह पुराण कहाँ और मैं मन्दबुद्धि कहाँ ? मन के समान वेगवाले बड़े-बड़े पक्षियों अथवा आकाशगामी विद्याधरों के द्वारा पार किये हुए समुद्र को क्या मयूर पार कर सकता है ? अर्थात् नहीं ॥ ४ ॥ तथापि 'यह पुण्यास्रव भूत है' यह विचार कर मैं अपनी शक्ति के अनुसार श्रीवर्धमान जिनेन्द्र का चरित्र कहने के लिये
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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