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वर्धमानचरित
हुई। विजयार्धकी दक्षिण श्रेणी में स्थित रथनूपुरनगर के राजा ज्वलनजटीने यहाँ आकर अपनी स्वयंप्रभा नामकी पुत्री त्रिपृष्ठको देने की प्रार्थना की।
सर्ग: ६
६३-११५ ५५.६३
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निश्चयानुसार ज्वलनजटीने अपनी पुत्रीका विवाह त्रिपृष्ठके साथ कर दिया। अलका राजा अश्वग्रीवको यह सहन नहीं हुआ कि विद्याधरको कन्याके साथ भूमिगोचरीका विवाह हो उसने विद्याधरोंसे जब यह समाचार कहा तब उन्होंने बहुत क्रोध प्रकट किया। कुछ मन्त्रियोंने अश्वग्रीवको समझाया भी परन्तु वह समझ नहीं सका और त्रिपृष्ठसे युद्ध करनेके लिये तैयार हो गया । इस संदर्भ में राजा प्रजापति और विजय तथा त्रिपुष्ठकी सुन्दर मन्त्रणा हुई।
१-२२ ६३-६६
२३-७१ ६६-७५
सर्ग: ७
मन्त्रिमण्डलके बीच राजा प्रजापतिने अपनी शक्तिपर मन्त्रणा की होनहार बलभद्र और नारायणपदके धारक विजय और त्रिपुष्ठने अपने पिता प्रजापतिको पूर्ण आश्वस्त किया । दोनोंकी सेनाएँ युद्ध के लिये तैयारी करती हैं ।
सर्ग: ८
अश्वग्रीवके दूतने प्रजापतिकी सभा में आकर कहा कि चक्रवर्ती अश्वग्रीवके साथ वैर करना अच्छा नहीं, इसलिये स्वयंप्रभाको भेजकर सुख से रहो दूतकी इस कुमन्त्रणाका त्रिपृष्ठने करारा उत्तर दिया। दोनों ओर से युद्ध की पूरी तैयारियाँ हो गई ।
सर्ग: ९
विविध योद्धाओं लोमहर्षक युद्धके बाद भी जब अश्वग्रीवको सफलता नहीं मिली तब उसने त्रिपृष्ठ पर चक्ररत्न चलाया परन्तु वह प्रदक्षिणा देकर विपृष्ठके हाथमें आ गया । त्रिपृष्ठके समझानेपर भी जब उसने अपनी हठ नहीं छोड़ी तब त्रिपृष्ठने उसी चक्ररत्नसे उसकी जीवनलीला समाप्त कर दी। त्रिपुष्ठ नारायणके जयघोष से दिशाएँ मुखरित हो उठीं ।
१-१०३ ७५-८९
१-८७८९-१०२
१-१०२ १०२-११७
सर्ग : ११
करते हुए मुनिराजने कहा कि हे सिंह ! संसार दुःखमय है। इन दुःखोंसे बचना चाहता है तो जिनेन्द्र भगवान् के वचनरूपी औषधका पान कर । हे मृगराज ! कमलाधर
नरक गतिके भयंकर दुःखोंका वर्णन नरकके उन दुखोंको भोगनेवाला तू ही है।
सर्गः १०
त्रिपृष्ठने दिग्विजय की । बलभद्र और नारायणपदके धारक विजय और त्रिपृष्ठ में गढ प्रीति थी । राजा ज्वलनजटी और प्रजापतिने दीक्षा धारण की । त्रिपृष्ठकी मृत्यु हो गई जिससे बलभद्र विजयने करुण विलाप किया परन्तु अन्तमें उन्होंने त्रिपृष्ठके पुत्र श्री विजयको राज्य देकर सुवर्णकुम्भ गुरुके पास दीक्षा ले ली और तपश्चरण कर मोक्ष प्राप्त किया । त्रिपुष्ठका जीव सातवें नरक गया।
१-९०
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