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________________ ३०८ वर्धमानचरितम् रक, वैक्रियिक. तेजस, वेदना, कषाय, मारणा- जीवोंका आस्रव । यह पहलेसे दश गुणस्थान न्तिक और लोकपूरण ये सात भेद हैं। तक होता है। सम्यक्त्व ११६७११२ - सम्यग्दर्शन, जीव-अजीव- स्कन्ध १५।१९।१७८ = दो या इससे अधिक परमा आस्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा और मोक्ष इन सात णुओंके संगसे निर्मित पुद्गलद्रव्यकी पर्याय । तत्वों अथवा पुण्य-पाप सहित नौ पदार्थोंका स्थपुटोर्वरा १५।११३।१९८ = ऊँची नीची जमीन, यथार्थ श्रद्धान करना। शय्या परिषह सहन करनेके लिए मुनि ऐसी जमीनमें शयन करते हैं। सम्यक्त्वशुद्धि १५।४८।१८३ = दर्शनविशुद्धिभावना स्थिति १५।६९।१८८ = कर्मबन्धका एक भेद । इस -अष्टाङ्ग सम्यग्दर्शनका निर्दोष पालन करना। बन्धमें कषायभावोंके अनुसार ज्ञानावरणादि सरागसंयम १५।१४।१८३ = रागसहित संयम, छठवें ___ कर्मोंकी स्थिति बँधती है। और सातवें गणस्थानवर्ती मनिका संयम। संघ १५।२९।१८० = ऋषि मुनि यति और अनगार साधु समाधि १५।४७।१८३ = सोलह कारणभाव__ इन चार प्रकारके मुनियों का समूह । नाओंमें एक भावना--मनियोंका उपसर्ग दूरकर संयतासंयत १५।१४३।२०६ = पञ्चम उन्हें निराकुल बनाना। गुणस्थान वर्ती श्रावक, यह पाँच पापोंका एकदेशत्याग सामायिक १५।१२५।२०१ = चारित्रका एक भेद, ___ समस्तपापोंका त्याग करना। करना है। संयमासंयम १५।४४।१८३ = हिंसादि पाँच पापोंका हविलसित (सिंहनिष्क्रीडित) १६६४६।२२४ = एकदेशत्याग करना जैसे त्रसहिंसाका त्याग मुनियोंका एक तप । इसकी विशेष विधि व्रतकरना परन्तु स्थावर हिंसाका त्याग नहीं करना विधान परिशिष्टसे जानना चाहिये । सूप्रतिष्ठकनिभ १५१९९।१९५ = उत्तम भोंदराके आदि । समान अर्थात् बीचमें पतला और नोचे तथा संरम्भ १५।२५।१७९ = किसी कार्यके करनेका । ऊपर विस्तृत । संकल्प करना। सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति १५।१५०।२०७ = शुक्लध्यानसंवर १५।५।१७६ = आस्रव-नवीन कर्मोंका आग का एक भेद । यह तेरहवें गुणस्थानके अन्तमें मन रुक जाना यह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, होता है। अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्रसे होता है। सूक्ष्मसाम्पराय १५।१२८।२०२ = चारित्रका एक संवेगता १५।४७।१८३ = सोलह कारण भावनाओंमें .. भेद । यह दशमगुणस्थानमें होता है। एक भावना-संसारसे भयभीत रहना। हरिदष्टकस्थ १८।३२।२५५ = पूर्व, पश्चिम, उत्तर, संस्थिति विचय (संस्थान विचय)१५।१४४।२०६ - दक्षिण इन चार दिशाओं तथा ऐशान, आग्नेय, धर्म्यध्यानका एक भेद इसमें लोकके आकारका नैऋत्य और वायव्य इन चार विदिशाओं में विचार किया जाता है। स्थित । सांपरायिकआस्रव १५।२२।१७९ = कषायसहित हरिमणि १८।२७।२५४ = इन्द्रनीलमणि । शर्म
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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