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वर्धमानचरितम्
नाओंमें एक भावना-मोक्षमार्गकी प्रभावना नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ये छः करना।
भेद हैं। मिथ्यात्व १५१६२११८३ = अतत्त्वश्रद्धान-जीवादि सात लोक १५।१६।१७८ = जहाँ तक जीवादि छह द्रव्योंतत्त्वोंका श्रद्धान नहीं होना ।
का सद्भाव रहता है वह आकाशलोक कहलाता मिथ्यादर्शन १५।१२।१७७ = अतत्त्वश्रद्धान-जीवादि है । यह १४ राजू ऊँचा, उत्तर-दक्षिणमें ७ राजू ____सात तत्त्वोंका श्रद्धान नहीं होना ।
विस्तृत तथा पूर्वपश्चिममें ७ राजू, १ राजू, ५ मैत्री १५।६०११८६ = एक भावना-कोई जीव दुःखी
राजू और १ राजू चौड़ा है । इसका क्षेत्रफल न रहे ऐसी भावना रखना।
३४३ राजू होता है। एक राजू असंख्यात मोक्ष १५।५।१७६ = समस्त कर्मोंका क्षय हो जाना।
योजनोंका होता है। मोह १५७११८८ = आठ कर्मोमेंसे एक कर्म, इसके
लोकपूरण १५।१६३।२१० = केवलिसमुद्घातका एक निमित्तसे जीव परपदार्थों में आत्मबुद्धि करता है।
भेद। इस समुद्घातमें आत्माके प्रदेश समस्त अतत्त्वश्रद्धान और क्रोधादि कषाय उत्पन्न करना इसका कार्य है।
लोकमें व्याप्त हो जाते हैं।
लौकान्तिकामर ३।६५।२८ = ब्रह्मस्वर्गके अन्तमें मौक्तिकावली १६।४।२२४ = मुनियोंका एक तप।
____ रहनेवाले विशिष्ट देव । ये देव ब्रह्मचारी रहते हैं, इसके विधि व्रतविधानके परिशिष्टमें देखें।। यथाख्यात १५।१२९।२२० = चारित्रका एक भेद ।
द्वादशांगके पाठी होते हैं, संसारसे विरक्त रहते यह चारित्रमोहनीयकर्मके उपशम और क्षयोप- है, एक भवावतारी होते हैं तथा तीर्थकरोंके शमसे प्रकट होता है । उपशमसे होनेवाला ११वें
मात्र तपःकल्याणक में आते हैं। गुणस्थानमें और क्षयसे होनेवाला बारहवें आदि वनसुर १८।३५।२५५ = व्यन्तरदेव, इनके किन्नर, गुणस्थानोंमें होता है।
किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और योगवक्रभूय १५।४५।१८३ = मन-वचन-कायरूपयोगों
पिशाच ये आठ भेद होते हैं। की कुटिलता, यह अशुभ नामकर्मके बन्धका वन्यामर १८।३७।२५६ = व्यन्तरदेव, इनके किन्नर, कारण है।
किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और रतिव्यवाय १५।५२।१८४ = मैथुन, इसके त्यागसे पिशाच ये आठ भेद होते हैं। ही ब्रह्मचर्यव्रत होता है।
वर्तना १५।१७।१७८ = पदार्थों में प्रत्येक समय होनेरत्नत्रय १।२।१ = सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक- वाला षड्गुणी हानिवृद्धिरूप परिणमन । यह चारित्र ।
निश्चय कालद्रव्यका कार्य है। रत्नमालिका १६।४६।२२४ = मुनियोंका एक तप। वितर्क १५।१५३।२०८ = श्रुत-द्वादशाङ्ग सम्बन्धी
इसे रत्नावली भी कहते हैं । इसकी विधि, व्रत- शास्त्र । . विधानके परिशिष्टमें देखें।
विनयाधिकत्व १५।४६।१८३ = सोलह कारण भावरौद्रध्यान १५।१४३।२०६ = नरकायुके बन्धके नाओंमें एक भावना-विनयरूप प्रवृत्ति करना ।
कारण एक खोटा ध्यान । इसके हिंसानन्दी, विपाकविचय १५।१४।२०६ = धर्म्यध्यानका एक भेद मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी ये चार इसमें कर्मोकी मूल तथा उत्तर प्रकृतियोंके फलका भेद हैं।
विचार किया जाता है । लेश्याषटक १५॥१२॥१७७ = कषायसे अनुरञ्जित विविक्तशय्यासन १५।१३५।२०३ = १२ तपोंमें एक
योगोंकी प्रवृत्ति लेश्या कहलाती है। इसके कृष्ण, तप । एकान्तस्थानमें शयन-आसन करना ।