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________________ पुद्गल १५।१५।१७८ = स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णसे युक्त रूपी द्रव्य । पारिभाषिक शब्द संग्रह पुंसवन १७१५७/२३७= गर्भिणी स्त्रीका एक संस्कार | पूर्वधर १८९० २६६ उत्पाद पूर्व आदि चौदह पूर्वी श्रुतभेदोंके पाठी मुनि । पृथक्त्ववितर्क १५।१४९४२०७ - शुक्ल ध्यानका एक भेद । - प्रकृति १५।६९।१८८ = कर्मबन्धका एक भेद । कर्मोंकी मूल प्रकृतियां ८ और उत्तरपकृतियाँ १४८ हैं । = प्रज्ञप्ति ३।२४।२४ - जैनागमका एक भेद । प्रतर १५।१६३।२१० - केवलि समुद्घातका एक भेद, इसमें आत्माके प्रदेश वातवलयको छोड़कर समस्त लोकमें फैल जाते है । प्रतियातना १८।२५।२५४ प्रतिमा - मूर्ति । प्रदेश १५।६९।१८८ = कर्मबन्धका एक भेद - प्रत्येक समय संसारी जीवके सिद्धोंके अनन्तवें भाग और अभव्यराशिसे अनन्तगुणें कर्मपरमाणु बंधते हैं। प्रदेश १५।१६।१७८ = आकाशके जितने भागको पुद्गलका एक परमाणु रोकता है, उसे प्रदेश कहते । प्रदोष १५।२६।१८० = मोक्षके साधनभूत तत्त्वज्ञानका विवेचन चलनेपर कुछ न कहते हुए अन्तरङ्गमें पैशुन्यरूप परिणाम रखना | प्रमाद १५।६२।१८६ = आठ प्रकारकी शुद्धियों में अनादर होना अथवा कुशल कल्याणकारी कार्यों में अनुत्साह होना । इसके १५ भेद हैं-४ विकथा, ४ कषाय, ५ इन्द्रिय, १ निद्रा और १ स्नेह । = ३०५ जिसमें अपने शरीरको टहल न स्वयं की जाती है। और न दूसरेसे कराई जाती है। = बन्ध १५ । ।१७६ - आत्मप्रदेशोंके साथ कर्मपरमाणुओंका संश्लेषणात्मक सम्बन्ध होना। इसके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और बम्ध ये चार भेद हैं । बहुश्रुतभक्ति ४५४७०१८३ सोलह कारणभावनाओमेंसे एक भावना । ज्ञानी जीवोंमें आदरका भाव रखना । बालतप १५०४४।१८३पञ्चान्नि तपना, धूम्रपान करना आदि अज्ञानी जनोंका तप । बोधि १५०१०१०१९६ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और रायम्कुचारित्ररूप रत्नत्रय । = = ब्रह्मचर्य १५८४११२ स्त्रीमात्रका त्यागकर आत्म स्वरूप में स्थिर रहना । = भव्यता १५।१३।१७८ = भव्यपना — जिसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र प्राप्त करने की योग्यता हो ऐसा जीव भव्य कहलाता है। = भाव १५।९।१७७ - आत्म के परिणाम विशेषको भाव कहते हैं । इसके पाँच भेद हैं-१ औपशमिक, २ क्षायिक, ३ क्षामोपशमिक, ४ औदयिक और पारिणामिक | मति ३।५४।२७ एक क्षायोपशमिकज्ञान, यह इन्द्रिय और मनके निमित्तसे होता है। इसके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार मूल तथा बहुबहुविध आदि पदार्थोंको जाननेकी अपेक्षा ३३६ उत्तरभेद होते हैं। । = प्रमोद १५।१०।१८६ एकभावना-गुणीजनों को देखकर हर्षका उत्पन्न होना । प्रायश्चित्त ९।१३७/२०४ लगे हुए दोषोंका निराकरण करना इसके आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापन ये नौ भेद हैं । प्रायोपवेश १६ । ६३ । २२६ = संन्यासमरणका एक भेद मार्गप्रभावना १९५।४८ । १८३ = सोलह कारण भाव मनुष्यधर्मा १७५६।२३७ = कुबेर, यह तीर्थंकरके कल्याणकोंमें प्रमुख कार्य करता है। मात्सर्य १५।२६।१८० किसी कारणवश देने योग्य ज्ञान भो दूसरे के लिए नहीं देना । मार्दव १५८४१९२मानका निग्रह कर विनयभाव धारण करना ( उत्तम क्षमा आदि दश धर्मोमें एक धर्म ) ,
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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