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________________ २६८ वर्धमानचरितम् इत्यन्तश्चिन्तयन्तः स्तुतिमुखरमुखास्तं प्रदेशं परीत्य प्रीत्या शक्रादयः स्वं प्रतिययुरमरा धाम संप्राज्यसम्पत् ॥ १०१ उपजातिः कृतं महावीरचरित्रमेतन्मया परस्वप्रतिबोधनार्थम् । सप्ताधिकत्रिशभवप्रबन्धं पुरूरवाद्यन्तिमवीरनाथम् ॥१०२ वर्द्धमानचरित्रं यः अनुष्टुप् प्रव्याख्याति शृणोति च । तस्येहपरलोकस्य सौख्यं संजायतेतराम् ॥१०३ वसन्ततिलकम् सम्वत्सरे दशनवोत्तरवर्षयुक्ते भावादिकीर्तिमुनिनायकपादमूले । मौद्गल्य पर्वतनिवास वनस्थसम्पत्सच्छ्रा विकाप्रजनिते सति वा ममत्वे ॥ १०४ विद्या या प्रपठित्साह्वयेन श्रीनाथराज्यमखिलं जनतोपकारि । प्राप्यैव चोडविषये विरलानगर्यां ग्रन्थाष्टकं च समकारि जिनोपदिष्टम् ॥ १०५ इत्यसगकृते वर्धमानचरिते महापुराणोपनिषदि भगवन्निर्वाणगमनो नाम अष्टादशः सर्गः • निकली थी तथा वायु कुमारों के इन्द्रों ने कपूर, लोहा, हरिचन्दन आदि श्रेष्ठ काष्ठों से जिसे प्रदीप्त किया था ऐसी अग्नि में इन्द्र ने जिनेन्द्र भगवान् के शरीर को हर्षपूर्वक होमा था ॥ १०० ॥ शीघ्र हो उन जिनराज के उत्कृष्ट पञ्चम कल्याण – निर्वाण कल्याणक को करके जो अन्तरङ्ग में भक्तिपूर्वक ऐसा चिन्तवन कर रहे थे कि हम लोगों को भी नियम से शीघ्र ही सिद्धिसुख की - मोक्ष - सुख की प्राप्ति हो, तथा जिनके मुख स्तुति से मुखर - शब्दायमान हो रहे थे ऐसे सौधर्मेन्द्र आदि कल्पवासी देव प्रीतिपूर्वक उस स्थान की प्रदक्षिणा देकर उत्कृष्ट संपत्ति से सहित अपने स्थान पर चले गये ॥ १०१ ॥ कर्त्ता श्री असग कवि कहते हैं कि हमने यह महावीरचरित निज और पर के प्रतिबोध के लिये बनाया है इसमें पुरुरवा को आदि लेकर अन्तिम महावीर तक के सैंतीस भावों का वर्णन किया गया है ॥ १०२ ॥ जो मनुष्य इस वर्द्धमानचरित का व्याख्यान करता है तथा श्रवण करता है उसे इस लोक और परलोक का सुख अवश्य ही प्राप्त होता है ॥ १०३ ॥ मौद्गल्य पर्वत पर बसे हुए वन नामक ग्राम में रहने वाली सम्पत् नामक श्रेष्ठश्राविका के द्वारा ममत्वभाव प्रकट करने पर मुझ असग कवि ने ९१४ सम्वत् में व श्री भाव कीर्ति मुनिराज के पादमूल में रहकर विद्या का अध्ययन किया और जनता का उपकार करने वाले श्रीनाथ राजा के सम्पूर्ण राज्य को प्राप्त कर चोल देश की विरला नगरी में मैंने जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा उपदिष्ट आठ ग्रन्थों की रचना की ।। १०४ - १०५ ।। इस प्रकार असगकवि कृत वर्धमानचरितरूप महापुराणोपनिषद् में भगवान् के निर्वाणगमन का वर्णन करने वाला अठारहवां सर्गं समाप्त हुआ ||
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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