SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ वर्धमानचरितम् जनयतीश रुचि त्वयि भव्यता सदवबोधमसौ स तपस्तु तत् । निखिलकर्मलयं स शरीरिणां शिवमन 'स्तमिताष्टगुणं सुखम् ॥७९ अनभिरञ्जित रक्तमविभ्रमस्थितिमनोज्ञमधौत सुनिर्मलम् । तव जिनेश्वर पादयुगं मम प्रशममातनुतां नमतः सदा ॥८० वसन्ततिलकम् इत्थं मया कृतनुतौ घनघातिकर्मनिर्मूलनोपजनितात्तिशर्याद्धयुक्ते । स्थेयान्मम त्रिभुवनाधिपतौ विविक्ता भक्तार्यनन्दिनि जिने त्वयि वीर भक्तिः ॥ ८१ उपजातिः स्तुत्वैवमिन्द्रः सुचिरं जिनेन्द्रं तमन्वयुङ्क्तेत्यमिवन्द्य भूयः । वामेन हस्तेन नयन्स्वदेशं पुरः प्रणामाद्विनतं किरोटम् ॥८२ वसन्ततिलकम् नाथ स्थितं कथमिदं भुवनं कियद्वा तत्त्वानि कानि पुरुषस्य कथं नु बन्धः । कैः स्यादनादिनिधनस्य कथं विमुक्ति वस्तुस्थितिः कथमुदाहर दिव्यवाचा ॥८३ इन्द्रवज्रा उक्त्वेति संपृष्टवते यथावत्तस्मै स जीवादिपदार्थतत्त्वम् । भव्यान्पथि स्थापयितुं विमुक्तेरित्थं जिनेन्द्रो विजहार वीरः ॥८४ द्वारा बात नहीं होता अर्थात् उसकी सब तृष्णाएँ स्वयं ही शान्त हो जाती हैं ॥ ७८ ॥ हे ईश ! भव्यता, आप में श्रद्धा को उत्पन्न करती है, आपकी श्रद्धा सम्यग्ज्ञान को उत्पन्न करती है, सम्यज्ञान तप को उत्पन्न करता है, तप समस्त कर्मों का क्षय करता है और समस्त कर्मों का क्षय अष्ट गुणों से सहित सुख रूप मोक्ष को उत्पन्न करता है ।। ७९ ।। हे जिनेश्वर ! जो बिना रंगे ही लाल हैं, विभ्रम स्थिति - विलासपूर्ण स्थिति से रहित होकर भी मनोज्ञ हैं तथा बिना धोये भी अत्यन्त निर्मल हैं ऐसे आपके चरणयुगल, नमस्कार करने वाले मेरे प्रशम गुण को सदा विस्तृत करें || ८० || इस प्रकार मेरे द्वारा जिनकी स्तुति की गई है, जो प्रचण्ड घातिया कर्मों के निर्मून से उत्पन्न होने वाली अतिशय पूर्ण ऋद्धियों से युक्त हैं तथा जो भक्त आर्य पुरुषों को आनन्ददायी है ऐसे त्रिलोकीनाथ आप जिनेन्द्र भगवान् में हे वीर ! मेरी पवित्र भक्ति सदा विद्यमान रहे ॥ ८१ ॥ इस प्रकार चिर काल तक जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति कर इन्द्र ने उन्हें बार-बार नमस्कार किया और नमस्कार करने के बाद इस प्रकार प्रश्न किया । नमस्कार करते समय प्रणाम करने से उसका जो मुकुट आगे की ओर झुक गया था उसे वह बाँये हाथ से अपने स्थान पर पहुँचा रहा था || ८२ ।। हे नाथ ! यह लोक किस प्रकार स्थित है ? कितना बड़ा है ? तत्त्व कोन है ? अनादिनिधन आत्मा का बन्ध कैसे और किन कारणों से होता है ? मुक्ति की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? तथा वस्तु का स्वरूप क्या है ? यह सब आप दिव्यध्वनि से कहिये || ८३ || इस प्रकार पूछने १. मनन्तमिताष्टगुणं म० अनन्तमितोऽष्टगुणं ब० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy