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________________ सप्तदशः सर्गः २४३ दिव्याम्बराभरणमाल्यविलेपनायैः संपूज्य मानवपति प्रियकारिणों च । आवेद्य तद्भगवतोऽस्य बलं च नाम प्रीता ययुः स्वनिलयं त्रिदशाः प्रनृत्य ॥९० तद्गर्भतः प्रतिदिनं स्वकुलस्य लक्ष्मों दृष्ट्वा मुदा विधुकलामिव वर्द्धमानाम् । सार्द्ध सुरैर्भगवतो दशमेऽह्नि तस्य श्रीवर्द्धमान इति नाम चकार राजा ॥९१ तस्यापरेधुरथ चारणलब्धियुक्तौ भर्तुर्यती विजयसंजयनामधेयौ। तद्वीक्षणात्सपदि निःसृतसंशयार्थावातेनतुर्जगति सन्मतिरित्यभिख्याम् ॥९२ शक्राज्ञया प्रतिदिनं धनदोऽनुरूपैःरानर्च रश्मिजटिलैर्मणिभूषणैस्तम् । नाथो व्यवर्द्धत यथेन्दुरकृष्णपक्षे भव्यात्मनामतनुना प्रमदेन सार्द्धम् ॥९३ संप्राप्स्यते न पुनरेव वपुःस्वरूपं बाल्यं मया क्षपितसंसृतिकारणत्वात् । तस्मादिमां सफलयामि दशामितीव मत्वामरैः सह जिनः पृथुकैः स रेमे ॥९४ मालभारिणी वटवृक्षमथैकदा महान्तं सह डिम्भैरधिरुह्य वर्द्धमानम् । रममाणमुदीक्ष्य सङ्गमाख्यो विवुधस्त्रासयितुं समाससाद ॥९५ स विकृत्य फणासहस्रभीमं फणिरूपं तरसा वटस्य मूलम् । विटपैः सह वेष्टते स्म बालास्तमथालोक्य यथायथं निपेतुः ॥९६ लोग जिसे सुमेरु पर्वत पर ले गये थे ऐसा यह आपका पुत्र अभिषेक करने के बाद पुनः यहां लाया गया है-ऐसा निवेदन कर देवों ने वह पुत्र माता पिता के लिये दे दिया ॥ ८९ ।। दिव्य वस्त्र आभरण माला और विलेपन आदि के द्वारा राजा सिद्धार्थ औरप्रियकारिणी की पूजा कर तथा भगवान् के उस बल और नाम का विवेदन कर प्रसन्न चित्त देव अपने-अपने घर चले गये। घर जाने के पूर्व उन्होंने मनोहर नृत्य किया था ॥ ९० ॥ उनके गर्भ समय से लेकर चन्द्र कला के समान बढ़ती हुई अपने कुल को लक्ष्मी को हर्ष से देखकर राजा ने दशवें दिन देवों के साथ उन भगवान् का श्रीवर्द्धमान यह नाम रक्खा ॥ ९१ ।। तदनन्तर किसी अन्य दिन उनके देखने से जिनका संशय पूर्ण अर्थ शीघ्र ही निकल गया था ऐसे चारण ऋद्धिधारी विजय और संजय नाम के मुनियों ने भगवान् का जगत् में सन्मति यह नाम विस्तृत किया ॥ ९२ ॥ इन्द्र की आज्ञा से कुबेर प्रतिदिन अनुरूप तथा किरणों से व्याप्त मणिमय आभूषणों से उनकी पूजा करता था। भगवान् शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के समान भव्य जीवों के बहुत भारी हर्ष के साथ बढ़ने लगे ॥ ९३ ॥ संसार के कारणों को नष्ट कर चुकने के कारण अब मेरे द्वारा पुनः शरीर स्वरूप बाल्य अवस्था प्राप्त नहीं की जावेगी इसलिये मैं इस बाल्य अवस्था को सफल करता हूँ ऐसा मानकर ही मानों वह जिनेन्द्र भगवान् देव बालकों के साथ क्रीडा करते थे।॥ ९४ ॥ तदनन्तर एक समय बालकों के साथ बड़े वट वृक्ष पर चढ़कर क्रीडा करते हुए वर्द्धमान जिनेन्द्र को भयभीत करने के लिये सङ्गम नामका देव आया ॥ ९५ ॥ उस देव ने हजारों फणाओं से भयंकर साँप का रूप बनाकर शीघ्र ही शाखाओं के साथ वट वृक्ष के मूल भाग को वेष्टित कर लिया। साथ के बालक उस भयंकर साँप को देखकर जिस किसी तरह नीचे कूद पड़े ॥ ९६ ।।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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